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________________ सागारधर्मामृत [२७७ दिये नहीं ले सकता । जो द्रव्य अपने लिये दे दिया गया है वह फिर दूसरेका नहीं कहला सकता, फिर वह अपना ही कहा जाता है । इसीप्रकार पानी, घास, मिट्टी आदि साधारण सबके काममें आने योग्य पदार्थों को भी अचौर्याणुव्रती विना दिये ले सकता है क्योंकि उस पदार्थको सबके लेनेकेलिये उसके स्वामीकी साधारण आज्ञा है और उस पदार्थको लेनसे वह चोर वा पापी भी नहीं कहा जा सकता । इसलिये इन दो तरहके पदार्थों को छोडकर बाकी सब तरह के दूसरेके पदाआँको अचौर्याणुव्रती न स्वयं लेता है और न उठाकर किसीको देता है ॥ ४६॥ आगे-प्रमत्तयोगसे विना दिये हुये एक तृणको भी ग्रहण | करने अथवा उठाकर किसी को देनेसे अचौर्यव्रत भंग हो जाता है ऐसा कहते हैं संक्लेशाभिनिवेशेन तृणमप्यन्यभर्तृकं। अदत्तमाददानो वा ददानस्तस्करो ध्रुवं ॥४७।। अर्थ-जो पुरुष संक्लेश परिणामोंसे अर्थात् यह पदार्थ मुझे चाहिये ऐसे लोभ अथवा उसकी हानि करनेरूपं द्वेषसे विना दिये हुये दुसरेके तृण आदि नकुछ पदार्थ भी ग्रहण करता है अथवा उठाकर दूसरेको दे देता है वह अवश्य ही चोर है, ऐसा करनेसे उसका अचौर्यव्रत नष्ट हो जाता है। इससे इतना और
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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