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________________ सागारधर्मामृत [२६३ आगे--आवश्यकादि कार्यों में अपनी शक्तिके अनुसार तथा सदा मौनव्रत धारण करनेसे वाणीके सब दोष नष्ट हो जाते हैं ऐसा कहते हैं आवश्यके मलक्षेपे पापकार्ये च वांतिवत् । मौनं कुर्वीत शश्वद्वा भूयो वाग्दोषविच्छिदे ॥३८॥ ___अर्थ-जिसप्रकार वांतिमें आचमन (कूरला ) करने तक मौन धारण किया जाता है उसीप्रकार सामायिक आदि छह कोंमें, मलमूत्र निक्षेपण करनमें, दूसरेके द्वारा हिंसादिक पापक्रिया होनेमें, च शब्दसे स्नान मैथुन आचमन आदि करनेमें देशसंयमी गृहस्थको मौनव्रत धारण करना चाहिये । मुनियों को ऊपर लिखी क्रियाओंमें जो जो क्रियायें करनी पडती हैं उनमें तथा आहारको जातेसमय और आहार लेते समय भी मौनव्रत धारण करना चाहिये। अथवा कायदोषकी अपेक्षा कठोरवचन आदि अनेक वाणीके दोषोंसे किंचनापि विधीयते ॥ अर्थ-मरण पर्यंत पालन किये जानेवाले मौनव्रतमें उसके निर्वाह करनेके सिवाय और कुछ उसका उद्यापन नहीं है। ३-सामायिक वा देवपूजनमें जो सामायिकपाठ वा पूजनपाठ पढा जाता है वा उसे स्वयं बोलना पडता है उससे मौनव्रत भंग नहीं हो जाता । वह पाठ पढना तो उसके उस आवश्यक कार्यमें ही शामिल है। उस पाठके सिवाय यदि वह कुछ लौकिक बातचीत करे या किसी लौकिक बातकेलिये इशारा केर ता उससे वह मौनव्रत भंग हो जाता है। -
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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