SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४] चौथा अध्याय दोनों से किसी अंशमें भी उसका पालन होता है तबतक वह अनाचार नहीं कहला सकता, अतिचार ही कहलायगा । तथा पहिले कहे हुये पांच अतिचारोंके सिवाय किसीकी गतिको रोकना, बुद्धि बिगाडना, और उच्चाटन आदि दुष्ट क्रिया ओंके सिद्ध करने के कारण ऐसे मंत्र अर्थात् जो इष्ट कार्यों के सिद्ध करनेमें समर्थ हैं और जिसके पाठ करनेसे ही सिद्धि होती है ऐसे अक्षरोंका समुदाय तथा तंत्र अर्थात् औषधि आदिकी क्रियायें, इन सबका विधिपूर्वक प्रयोग करना अर्थात् दुष्ट क्रियाओंको सिद्ध करनेकेलिये मंत्र तंत्र आदिका प्रयोग करना, आदि शब्दसे इन दुष्ट क्रियाओंकेलिये ध्यान धारण करना आदि भी अतिचार हैं। इनके सिवाय अन्य शास्त्रों में भी जो ऐसे बुरे व्यापार कहे हों कि जिनमें व्रतोंका एक देश 'भंग होता हो वे सब अतिचार हैं । अभिप्राय यह है कि जो जो व्रतको एक देश भंग करनेवाले हैं वे सब अतिचार हैं । अतिचारोंकी जो पांच संख्या लिखी है वह लक्षणारूप है व्रतोंके सब दोष अर्थात् एक देश भंग करनेवाले अभिप्राय वा क्रियायें सब इन्हीं पांचोंमें अंतर्भूत हो जाती हैं ॥ १८ ॥ १-आतक्रमो मानसशुद्धहानि यतिक्रमो यो विषयाभिलाषा । तथातिचारः करणालसत्वं भंगो ह्यनाचारमिह व्रतानां ॥ ।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy