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________________ सागारधर्मामृत । [२४३ हो जाता है तथा क्रोध करनेसे किसी जीवका साक्षात् घात होता नहीं है इसलिये वह उस व्रतका नाश भी नहीं करता है किंतु क्रोध आदि करते समय दयारहित होनेसे अंतरंग व्रतका भंग होजाता है और प्राणघात न होनेसे बहिरंग व्रतकी रक्षा बनी रहती है इसलिये एकदेशका भंग और एकदेश व्रतोंकी रक्षा करनेसे वह उस व्रतमें अतिचार लगाता है ॥१७॥ आगे-अतिचार शब्दका अर्थ कहकर "मुक्तिरोधं च" पंद्रहवें श्लोकमें दिये हुये च शब्दसे ग्रहण किये हुये अतिचा. रोंको कहते हैं__ सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोंऽशभंजनं ।। ' मंत्रतंत्रप्रयोगाद्याः परेऽप्यूह्यास्तथात्ययाः ॥१८॥ अर्थ-" मैं ग्रहण किये हुये अहिंसा व्रतका भंग नहीं करूंगा" ऐसी प्रतिज्ञा करनेवाले श्रावकके व्रतका एक अंश भंग होना अर्थात् चाहे अंतरंग व्रतका खंडन होना अथवा बहिरंग व्रतका खंडन होना उसवतमें अतिचार कहलाता है । भावार्थ-निर्दय होने आदिसे अंतरंग व्रतोंका खंडन होना भी अतिचार है और अंतरंगकी प्रवृत्तिके विना प्राणघात आदि होकर बहिरंग व्रतका खंडन होना भी अतिचार है। यदि अंतरंग बहिरंग दोनों तरहसे व्रतभंग हो जाय तब फिर वह अनाचार कहलाता है । जबतक अंतरंग अथवा बहिरंग इन |
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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