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________________ सागारधर्मामृत [ २१५ ग्वालिया नहीं कहता इसीप्रकार रखता हो अर्थात् ग्वालिया नहीं दूध न हो तो उसे कोई भी मी दूध होनेपर भी यदि वह गाय भैंस न खरीदकर ही घी दूध रखता हो तो भी उसे कहते । इसीप्रकार जो शल्यरहित है परंतु अहिंसा आदि व्रत पालन नहीं करता वह भी व्रती नहीं है, तथा अहिंसा आदि व्रत पालन करता हुआ भी यदि शल्यरहित न हो तो भी वह व्रती नहीं है किंतु जो व्रत पालन करता हो और शल्यरहित हो वही व्रती कहलाता है । इसलिये जैसे हमलोग छातीमें लगे | हुये बाणको निकाल डालते हैं उसीप्रकार मिथ्यात्व माया और निदान इन तीनों शल्योंको हृदयसे निकाल डालना चाहिये ॥ ३ ॥ आगे -- शल्यसहित व्रतोंको धिक्कार देते हुये कहते हैंआभांत्य सत्यदृग्मा यानिदानैः साहचर्यतः । यान्यत्रतानि व्रतवद्दुःखादर्काणि तानि धिक् || ३ || अर्थ – जो असत्यदृक् अर्थात् विपरीत श्रद्धान वा मिथ्यात्व, माया और निदान इन तीनों शल्योंके संबंध से व्रतोंके समान जान पडते हैं और जो अंत में केवल दुःख ही देनेवाले हैं ऐसे अव्रतों को धिक्कार हो । भावार्थ - शल्यसहित व्रत अव्रत ही हैं और इसलिये ही अंतमें दुःख देनेवाले हैं । ऐसे अत्रत (शल्यसहित व्रत) निंद्य है उनकेलिये आचार्य वारवार धिक्कार देते हैं ॥ ३ ॥
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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