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________________ २१४ ] चौथा अध्याय किंतु उसमें इतना और विशेष है कि जिसने थोडे दिनसे ही व्रत धारण किये हैं वह उन व्रतोंको शल्यरहित पालन करने के लिये पहिलेके विभ्रमरूप संस्कारोंसे उप्तन्न हुये परिणामोंकी परंपराको दूर करनेका फिर भी प्रयत्न करता है, अर्थात् यद्यपि पाहिलेके विभ्रमरूप परिणाम उसके नहीं हैं तथापि उस विभ्रमके संस्कारसे उन परिणामोंकी जो परंपरा बनी हुई है उनके दूर करनेका वह फिर भी प्रयत्न करता है इसीका उपदेश देनेकेलिये निःशल्य यह विशेषण दिया है। उपदेश देने में यदि कोई बात प्रकारांतरसे दुवारा भी कही जाय तो भी उसमें कोई दोष नहीं माना जाता ॥ १ ॥ आगे-तीनों शल्योंके दूर करनेका हेतु बतलाते हैंसागारो वानगारो वा यन्निःशल्यो व्रतीष्यते । तच्छल्यवत्कुदृग्मायानिदानान्युद्धरेष्टदः ॥ २ ॥ अर्थ--चाहे गृहस्थ हो अथवा मुनि हो जो शल्य रहित व्रत धारण करता है वही व्रती कहलाता है। यहांपर इसप्रकार समझलेना चाहिये कि शल्यके दूर होनेपर ही व्रतोंके होतेहुये व्रती कहलाता है । व्रत होनेपर यदि निःशल्य न हो तो वह व्रती नहीं कहला सकता । जैसे जिसके बहुतसा घी दूध होता है उसे गाय, भैंस पालन करनेवाला | ग्वालिया कहते हैं परंतु जिसके अनेक गाय भैंस होनेपर भी घी
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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