SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सागारधर्मामृत [ २०९ निराकुल होता हुआ व्रत सामायिक आदि आगेकी प्रतिमाओंमें अथवा वानप्रस्थ आश्रम में उत्साह करेगा अर्थात् न वह कुटंब पालन करनेका भार छोड़ सकता है और न निराकुल होकर आगेकी प्रतिमायें वा वानप्रस्थ आश्रम धारण कर सकता है । इसलिये मोक्षपद चाहनेवाले आचार्यको अपने ही समान योग्यता रखनेवाला शिष्य तैयार करना चाहिये और आगेकी प्रतिमायें अथवा वानप्रस्थ आश्रम धारण करने की इच्छा करनेवाले दर्शनिक श्रावकको अपने ही समान योग्यता रखनेवाला पुत्र तैयार करना चाहिये । तथा जिसप्रकार आचार्य अपने योग्य शिष्यको आचार्य पद देकर मोक्ष प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है उसीप्रकार गृहस्थको भी अथवा दर्शनिक श्रावकको भी अपने पुत्रको घरका सब भार सौंपकर आगेकी प्रतिमायें धारण करना चाहिये ॥३१॥ आगे-- दर्शनप्रतिमा के लक्षणका उपसंहार करते हुये व्रत प्रतिमा धारण करनेकी योग्यता दिखलाते हुये कहते हैंदर्शनप्रतिमा मित्थमारुह्य विषयेष्वरं । विरज्वन् सत्त्वसब्जः सन् व्रती भवितुमर्हति ॥ ३२ ॥ अर्थ – जो श्रावक " पाक्षिकाचार संस्कार" आदि तीसरे अध्याय के सातवें श्लोकसे लेकर जो दर्शन प्रतिमाका स्वरूप कहा है उसे धारण कर चुका है तथा जो स्त्री आदि इंद्रियों के विषयोंसे છ
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy