SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सागारधर्मामृत देना चाहिये । इस श्लोकमें जो नित्य शब्द दिया है उसका यह तात्पर्य है कि इस व्रतको पालन करनेकेलिये सदा प्रयत्न करते रहना चाहिये-ऊपर लिखे दोषोंसे सदा बचते रहना चाहिये । तथा गीत नृत्य और बाजेमें आसक्त नहीं होना चाहिये यह जो लिखा है उसका यह अभिप्राय है कि वह इन तीनोंमें अत्यंत आसक्त नहीं होवे किंतु यदि वह जिनमंदिर वा चैत्यालयमें धर्मवृद्धिकेलिये गीत नृत्य वाजे आदि सुने या देखे तो उसमें उसको कोई दोष नहीं है ॥२०॥ आगे-चौर्यव्यसनत्यागवतके अतिचार कहते हैंदायादाज्जीवतो राजवर्चसाद्गृह्णतो धनं । दायं वापन्हुवानस्य काचौर्यव्यसनं शुचि ॥२१॥ अर्थ-जो कुलकी साधारण संपत्तिमें भाग लेनेवाले भाई काका भतीजे आदि हैं उन्हें दायाद कहते हैं। जो दर्शनिक श्रावक देश काल जाति कुल आदिके अनुसार नहीं किंतु राजाके प्रतापसे दायादके जीवित रहते हुये भी उससे गांव सुवर्ण आदि द्रव्य ले लेता है अथवा जो कुलके साधारण द्रव्यको भाई दायादोंसे छिपा लेता है उसके किस देश और किस कालमें अचौर्यव्रत निरतिचार हो सकता है ? अर्थात् कभी नहीं । भावार्थ-ये अचौर्यव्रतके अतिचार हैं इनके त्याग करनेसे ही अचौर्यव्रत निर्मल रहता है । ऊपर जो दायादके जीवित रहते हुये भी उससे जो गांव सुवर्ण आदि ले लेता है।"
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy