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________________ सागारधर्मामृत [१९७ घन करते हैं और अपि शब्दसे जो मिथ्यात्वमें रहनेवाले मनुष्यको भी उलंघन करते हैं, ऐसे ये जूआ मांस आदि सातों पाप मनुष्यों को उनके कल्याणोंसे लौटा लेते हैं अर्थात् मनुष्योंका अकल्याण करते हैं इसलिये ही विद्वान लोग इन सातों पापोंको व्यसन कहते हैं । इसलिये जूआ आदि सप्त व्यसनके त्याग करनेवालोंको रसायन सिद्ध करना आदि उपव्यसनों को भी दूर कर देना चाहिये क्योंकि रसायन सिद्ध करना आदि भी जूआ आदि व्यसनोंके ही समान हैं। इसका भी कारण यह है कि जैसे जूआ आदि व्यसनोंसे दुरंत पापोंका बंध होता है और मनुष्यों का अकल्याण होता है उसीप्रकार रसायन सिद्ध करना आदि उपव्यसनोंसे भी पापका बंध और अकल्याण होता है । 'रसायन आदि सिद्ध करना' इसमें जो आदि शब्द दिया है उससे अंजनगुटिका | पादुकाविवरप्रवेश (खडाऊके छेदमेंसे निकलजाना) आदि ग्रहण किया है । 'कुर्वातापि' इसमें जो अपि शब्द है उसका यह तात्पर्य है कि सातों व्यसनों के त्याग करनेवाले दर्शनिक श्रावकको केवल सातों व्यसनोंका ही त्याग नहीं करना चाहिये, किंतु रसायन आदि उपव्यसनोंका भी अवश्य त्याग करना चाहिये ॥ १८ ॥ __ आगे-छूतत्यागवतके अतिचार कहते हैंदोषो होढाद्यपि मनोविनोदार्थ पणोज्झिनः । हर्षोमर्षोदयांगत्वात्कषायो ह्यहसेंजसा ॥ १९ ॥
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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