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________________ ( १९६ ] तीसरा अध्याय ऐसा वृद्ध लोगोंकी परंपरासे सुनते आते हैं इसलिये सद्वती गृहस्थको दुर्गतिके दुःखोंके कारण और पापोंको उत्पन्न करनेवाले ऐसे द्यूत, मांस, मद्य, वेश्या, चोरी, शिकार और परस्त्री इन सातों व्यसनोंको मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनासे त्याग करना चाहिये॥१७॥ आगे--व्यसन शब्दकी निरुक्ति दिखलाकर जूआ आदि व्यसन घोर पापके कारण हैं और कल्याणको रोकनेके हेतु हैं यही दिखलाते हैं तथा इन व्यसनोंके त्याग करनेवालोंको रसायन बनाना आदि उपव्यसन भी दूरसे ही छोडना चाहिये क्योंकि इनका फल भी व्यसनोंके ही समान बुरा है। आगे यही उपदेश देते हैं जाग्रत्तीनकषायकर्कशमनस्कारार्पितैर्दुष्कृतै । बैतन्यं तिरयत्तमस्तरदपि द्यूतादि यच्छ्रेयसः। पुंसो व्यस्यति तद्विदो व्यसनमित्याख्यांत्यतस्तद्रतः कुर्वीतापि रसादिसिद्धिपरतां तत्सोदरी दूरगां ॥१८॥ ___ अर्थ-निरंतर उदयमें आये हुये और जो किसीतरह निवारण न किये जा सकें ऐसे तीन क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायोंके निमित्तसे जो चित्तके परिणाम अत्यंत कठिन हो जाते हैं अर्थात् दृढ कर्मबंधन करनेकेलिये तैयार हो जाते हैं ऐसे उन परिणामों के द्वारा उत्पन्न हुये पापोंसे जो आत्माके चैतन्य परिणामोंको ढक लेते हैं तथा जो मिथ्यात्वको भी उल्लं.
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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