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________________ १८६ ] तीसरा अध्याय निर्मूलयन्मलान्मूलगुणेष्वग्रगुणोत्सुकः। न्याय्यां वृत्तिं तनुस्थित्यै तत्वन् दर्शनिको मतः ॥८॥ अर्थ-पाक्षिक श्रावकके आचार जो पहिले दूसरे अध्यायमें निरूपण कर चुके हैं उनको उत्कृष्ट रीतिसे धारणकर जिसने अपना निर्मल सम्यग्दर्शन निश्चल किया है, जो संसार, शरीर और भोगोपभोगादि इष्ट विषयोंसे विरक्त है, अथवा संसारके कारण ऐसे भोगोंसे अर्थात् गृद्धतापूर्वक स्त्री आदि विषयोंके सेवन करनेसे विरक्त है, भावार्थ-जो प्रत्याख्यानावरण नामा चारित्रमोहनीयकर्मके उदयसे स्त्री आदि विषयोंका सेवन करता हुआ भी उसमें अतिशय लीन नहीं होता, अरहंत सिद्ध आदि पंचपरमेष्ठियोंके चरणकमलों में ही जिसका अंतःकरण है, अर्थात् जो भारी विपत्ति पडनेपर भी उसके दूर करनेके लिये शासन देवता आदिका आराधन नहीं करता, जिसने आठ मूलगुणोंके अतिचार जडमूलसे नाश कर दिये हैं, अर्थात् जो 'मूलगुणोंको निरतिचार पालन करता है, जो व्रत आदि १-आदावते स्फुटमिह गुणा निर्मला धारणीयाः। पापध्वंसि व्रतमपमलं कुर्वता श्रावकीयं । कर्तुं शक्यं स्थिरमुरुभरं मंदिरं गतपूरं । न स्थेयोभिदृढतममृते निर्मितं ग्रावजालैः ॥ अर्थ-जो पुरुष पापके नाश करनेवाले श्रावकके व्रत निर्दोष पालना चाहता है उसको प्रथम ही मद्यविरति आदिके मूलगुण निर्दोष अर्थात् निरतिचार पालन करने चाहिये । क्योंकि जो घर बड़े मजबूत पत्थरोंसे बनायागया
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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