SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६२ ] दूसरा अध्याय भृत्वाश्रितानवृत्यार्तान् कृपयानाश्रितानपि । भुंजीतान्हांबुभैषज्यतांबूलैलादि निश्यपि ॥ ७६ ॥ अर्थ —— अन्य किसी जीविकाके न होनेसे जिनका चित्त व्याकुल रहता है ऐसे आश्रित लोगों को अर्थात् अपने सिवाय और कोई जिनका आश्रय नहीं है ऐसे सेवक पशु आदिकों को, तथा जो अनाश्रित हैं जिनका संसार में कोई आश्रय नहीं है ऐसे अनाथ मनुष्य और पशुओं को करुणाबुद्धिसे खिला पिलाकर फिर आप दाल भात आदि भोजन करे और वह दिनमें ही करे रात में नहीं । पाक्षिक श्रावक रात्रिमें केवल जल, औषधि, पान, सुपारी, इलायची, और आदि शब्दसे जायफल कपूर मुखको सुगंध करनेवाले द्रव्य खा सकता है ।। ७६ ।। आगे -- स्वस्त्री, पुष्पमाला आदि जो सेवन करनेयोग्य पदार्थ हैं वे भी जबतक प्राप्त न होसके तबतककी मर्यादा १- तांबूलमौषधं तोयं मुक्त्वाहारादिकां क्रियां । प्रत्याख्यानं प्रदीयेत यावत्प्रातर्दिनं भवेत् ॥ अर्थ - तांबूल औषध और जल इन पदार्थोंको छोडकर शेष पदार्थोंकी आहारादि क्रियाका त्याग रात्रिके प्रारंभसे प्रातःकालतक करना चाहिये । ( नोट ) आजकल जो रात में बहुत से लोग पेडा बरफी रबडी आदि खाते हैं वह बिलकुल शास्त्रविरुद्ध और बुरी चाल है। गृहस्थोंको पान सुपारी आदि ऊपर लिखे पदार्थों के सिवाय रातमें कुछ नहीं खाना चाहिये ।
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy