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________________ सागारधर्मामृत [१५३ आगे-मुनियोंको कैसा दान देना चाहिये इसीका निर्णय | करनेके लिये कहते हैं तपःश्रुतोपयोगीनि निरवद्यानि भक्तितः । मुनिभ्योऽन्नौषधावासपुस्तकादीनि कल्पयेत् ॥६९॥ अर्थ-तप और श्रुतज्ञानको उपकार करनेवाले तथा आहारशुद्धिमें कहे हुये 'उच्छिष्ट उद्ग्रम उत्पादन आदि दोषोंसे रहित ऐसे अन्न औषधि वसतिका पुस्तक और आदि शब्दसे पीछी कमंडलु आदि पदार्थ मुनियों के लिये भक्तिपूर्वक श्रावकको देना चाहिये ॥ ६९ ॥ १-विवर्ण विरसं विद्धमसात्म्यं प्रभृतं च यत्। मुनिभ्योऽन्नं न तद्देयं यच्च भुक्तं गदावहं ॥ उच्छिष्टं नीचलोकाहंमन्योद्दिष्टं विगर्हितं । न देयं दुर्जनस्पृष्टं देवयक्षादिकल्पितं ॥ ग्रामांतरात्समानीतं मंत्रानीतमुपायनं । न देयमापणक्रीतं विरुद्धं वा यथर्तुकं ॥ दधिसर्पिषयोर्भक्ष्यप्रायं पर्युषितं मतं । गंधवर्णरसभ्रष्टमन्यत्सर्वं विनिंदितं ॥ अर्थ-जिसका वर्ण रस बिगड गया है, जो घुना हुआ है, जो प्रकृति विरुद्ध है, जो रोग उत्पन्न करनेवाला है ऐसा अन्न मुनिके लिये कभी नहीं देना चाहिये। जो उच्छिष्ट हो, नीच लोगोंके योग्य हो, किसी दूसरेके लिये तयार किया गया हो, जो निंद्य हो, जिसे किसी दुष्टने स्पर्श कर लिया हो, जिसे किसी देव या यक्षके लिये कल्पना करलिया हो, जो दूसरे गांवसे लाया गया हो, जो मंत्रसे अर्पितकर लाया गया हो, जो भेटमें आया हो, जो बाजारसे खरीदा गया हो, जो उस ऋतुके विरुद्ध हो, जो घी दहीमें खाने योग्य हो, जिसका गंध वर्ण
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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