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दूसरा अध्याय सप्तोत्तानशया लिहंति दिवसान्स्वांगुष्ठमार्यास्ततः को रिंगंति ततः पदैः कलगिरो यांति स्खलाद्भस्ततः । स्थेयोभिश्च ततः कलागुणभृतस्तारुण्यभोगोदग्रताः सप्ताहेन ततो भवंति सुदृगादानेऽपि योग्यास्ततः ॥६८॥
___ अर्थ--भोगभूमिमें जन्मे हुये मनुष्योंको आर्य कहते हैं वे आर्य अपने जन्म दिनसे सातदिनतक अर्थात् पहिले सप्ताहमें ऊपरकी ओर अपना मुख किये हुये पड़े रहते हैं और अपना अंगूठा चोखते रहते हैं। उसके बाद सात दिनतक अर्थात् दूसरे सप्ताहमें वे पृथ्वीपर रिंगते हैं अर्थात् धीरे धीरे घुटनोंके बल चलते हैं। तदनंतर सात दिनतक अर्थात् तीसरे सप्ताहमें वे आर्य मधुर भाषण करते हुये तथा इधर उधर पडते हुये अटपटी चालसे चलते हैं। चौथे सप्ताहमें सातदिनतक पृथ्वीपर स्थिरतासे पैर रखते हुये चलते हैं। उसके बाद पांचवें सप्ताहमें सातदिनतक गाना बजाना आदि कलाओंसे तथा लावण्य आदि गुणोंसे सुशोभित हो जाते हैं । तदनंतर छटे सप्ताहमें सात दिनमें ही नव यौवन और अपने इष्ट भोगादिके भोगनेमें समर्थ हो जाते हैं तथा उसके बाद सातवें सप्ताहमें वे आर्यलोग सम्यग्दर्शन ग्रहण करनेके योग्य हो जाते हैं । ग्रंथकारने अपि शब्दसे आश्चर्य प्रगट किया है अर्थात् आश्चर्य है कि मनुष्य होकर भी उनचास दिनमें ही वे बढ जाते हैं और सम्यक्त्वके योग्य हो जाते है ॥१८॥