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________________ १२० ] दूसरा अध्याय रहता है वह धर्मकार्य करनेमें आनेवाले विघ्नरूपी सर्पोंसे दूर ही रहता है । अभिप्राय यह है कि अपकार करनेसे विघ्न सर्पोंके समान हैं और उनको दूर करनेवाली गुरुकी आज्ञा वा आज्ञाके अनुसार चलना गरुडपक्षी के समान है । जो गुरुकी आज्ञानुसार चलते हैं उन्हें कभी किसी धर्मकार्य में विघ्न नहीं आते । इसके सिवाय गुरु सदा धर्मकार्य करनेकी प्रेरणा किया करते हैं इस - लिये गुरुकी उपासना वा सेवा नित्य करनी चाहिये | ४५ || आगे -- गुरुकी उपासना करने की विधि बतलाते हैंनिर्व्याजया मनोवृत्त्या सानुवृत्त्या गुरोर्मनः । प्रविश्य राजवच्छश्वद्विनयेनानुरंजयेत् ॥४६॥ अर्थ -- जिसप्रकार सेवक लोग राजाके मनको प्रसन्न किया करते हैं उसीप्रकार कल्याण चाहनेवाले श्रावकों को दंभ और छलकपटरहित अपने चित्त की वृत्तिसे तथा उनकी इच्छा 1 नुसार उन गुरुके अतःकरण में प्रवेशकर मन बचन कायकी विनयसे नित्य ही गुरुका मन प्रसन्न करना चाहिये । आते ही उनके सामने खड़े हो जाना, उनके पीछे पीछे चलना आदि काकी विनय है, हितमित वचन कहना बचनकी विनय है और उनका शुभ चिंतन करना मनकी विनय है । इन तीनों तरह की विनयसे गुरुका चित्त प्रसन्न करना चाहिये ॥ ४६ ॥ आगे -- विनयसे गुरुका चित्त प्रसन्न करना चाहिये safat प्रगट कर दिखलाते हैं
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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