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________________ सागारधर्मामृत [ ११९ आगे- जिनवाणीकी पूजा करनेवाले परमार्थ से (यथार्थमें) जिनेंद्रदेवकी ही पूजा करनेवाले हैं ऐसा उपदेश देते हैं ये यजते श्रुतं भक्त्या ते यज॑तेंऽजसा जिंनं । न किंचिदंतरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः ॥ ४४ ॥ अर्थ- जो लोग भक्तिपूर्वक श्रुतपूजा करते हैं वे परमार्थसे अर्थात् वास्तव में जिनेंद्रदेवकी ही पूजा करते हैं। क्योंकि आचार्यों ने जिनेंद्रदेव और श्रुतदेवता अर्थात् जिनवाणीमें कुछ भी अंतर नहीं कहा है । जो अरहंत देव है वही जिनवाणी है और जो जिनवाणी है वही अरहंतदेव है ऐसा समजना चाहिये ॥४॥ इसप्रकार देवपूजाकी विधि कही। अब आगे - गुरु साक्षात् उपकार करनेवाले हैं इसलिये उनकी नित्य उपासना करनी चाहिये ऐसा कहते हैं उपास्या गुरवो नित्यमप्रमत्तैः शिवार्थिभिः । तत्पक्षतार्क्ष्यपक्षांतश्चरा विघ्नारगोत्तराः ॥ ४५ ॥ अर्थ - जो परम कल्याण अर्थात् मोक्षकी इच्छा करनेवाले सज्जन पुरुष हैं उनको प्रमाद छोड कर नित्य ही धर्मकी आराधना करनेकी गुरुओं की सेवा करनी चाहिये । गुरुओं की आधीनता अथवा आज्ञारूपी प्रेरणा करनेवाले T क्योंकि जो पुरुष गरुडपक्षी के समीप
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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