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________________ सागारघर्मामृत [ १०३ चैत्यादौ न्यस्य शुद्धे निरुपरमनिरौपम्यतत्तद्गुणौघश्रद्धानात्सोऽयमर्हन्निति जिनमनधैस्तद्विधोपाधिसिद्धैः नीराद्यैश्चारुकाव्यस्फुरदनणुगुणग्रामरज्यन्मनाभिभव्योऽर्चन् दृग्विशुद्धिं प्रबलयतु यया कल्पते तत्पदाय ॥ ३१ ॥ अर्थ -- अरहंतदेव में अनेक असाधारण गुण हैं जो कभी नाश नहीं होते और न संसारमें जिनकी कुछ उपमा है जैसे व्यवहार नयसे जिनमें दर्शन विशुद्धि आदिकी भावनायें मुख्य है ऐसे पंचकल्याणक गुण हैं और निश्चयनयसे चैतन्य अचैतन्य आदि पदार्थों के आकाररूप परिणत होना अर्थात् उन सब पदार्थों का जानना आदि हैं। भव्य जीवको प्रथम ही इन सब गुणों के समूहमें श्रद्धान वा अनुराग अथवा प्रेम करना चाहिये, और फिर वह रुद्र आदिके आकारसे रहित शुद्ध निर्दोष प्रतिमा में अथवा आदि शब्दसे प्रतिमा न मिलनेपर जिनेंद्रदेव के आकार से रहित ऐसे अक्षत आदिकोंमें भी श्री जिनेंद्रदेवकी स्थापना कर अर्थात् “उत्सर्पिणीके तृतीय और अवसर्पिणीके चतुर्थकालमें जो अरहंतदेव चौतीस अतिशय अष्ट महाप्रातिहार्य और अनंत चतुष्टयसहित समवसरण में विराजमान होकर तत्त्वोंका उपदेश देते हुये भव्य जीवोंको पवित्र करते थे, ये वे ही अरहंत देव हैं" इसप्रकार नाम स्थापना द्रव्य भावके द्वारा स्थापना करे अर्थात् उस प्रतिमामें अथवा अक्षत आदिकोंमें अरहंतदेवको साक्षात मानें और फिर जो काव्य शब्द और अथोंके दोषोंसे रहित है
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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