SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०] दूसरा अध्याय सार्थक हैं । मुकुटबद्ध राजा लोग भक्तिपूर्वक ही इसे करते हैं, चक्रवर्तीकी आज्ञा अथवा भयसे नहीं । यह यज्ञ भी कल्पवृक्षके समान है, अंतर केवल इतना है कि कल्पवृक्ष यज्ञमें संसारभरको इच्छानुसार दान आदि दिया जाता है और इस यज्ञमें केवल उस मुकुटबद्ध राजाके स्वाधीन देशमें ही दानादि दिया जाता है ॥२७॥ आगे--कल्पवृक्ष यज्ञको कहते हैं किामच्छकेन दानेन जगदाशाः प्रपूर्य यः । चक्रिभिः क्रियते सोऽहंद्यज्ञः कल्पद्रुमो मतः ॥२८॥ अर्थ--याचकोंकी इच्छानुसार संसारभरके लोगोंके मनोरथोंको पूर्णकर चक्रवर्ती राजाओं के द्वारा जो अरहतदेवकी पूजा की जाती है उसे कल्पवृक्षमह कहते हैं । यही आचार्योंकी संमति है । भावार्थ--तुमको क्या चाहिये? तुम्हारी क्या इच्छा है ? इच्छा हो सो लीजिये इसप्रकार प्रेमपूर्वक पूछकर सबकर इच्छा पूर्णकर चक्रवर्ती जो जिनपूजा करता है उसे कल्पवृक्षमह कहते हैं । ( जिसप्रकार कल्पवृक्षसे लोगोंकी सब इच्छायें पूर्ण होती हैं उसीप्रकार इस यज्ञसे भी सब याचकोंकी इच्छा पूर्ण हो जाती हैं इसलिये ही इसका नाम कल्पवृक्षयज्ञ है ॥२८॥ ___ आगे--बलि स्नपन आदि विशेष पूजायें सब नित्यमहादिकोंमें ही अंतर्भूत हैं ऐसा दिखलाते हैं
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy