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________________ सागारधामृत आगे-आष्टाहिक और ऐंद्रध्वजको कहते हैंजिनार्चा क्रियते भव्यैर्या नंदीश्वरपर्वणि । अष्टाह्निकोऽसौ सेंद्राद्यैः साध्या वैद्रध्वजो महः ।। २६ ॥ अर्थ-नंदीश्वर पर्वके दिनोंमें अर्थात् प्रतिवर्ष असाढ कार्तिक और फाल्गुन महीनेके शुक्लपक्षकी अष्टमीसे पौर्णिमा तक अंतके आठ दिनोंमें जो अनेक भव्यजन मिलकर अरहंतदेवकी पूजा करते हैं उसे आष्टाहिक मह कहते हैं। तथा जो इंद्र प्रतींद्र और सामानिक आदि देवोंके द्वारा एक विशेष जिनपूजा की जाती है उसे ऐंद्रध्वजमह कहते हैं ऐसा आचार्योंने कहा है ॥ २६ ॥ आगे-महामहको कहते हैं.. भक्त्या मुकुटबद्धैर्या जिनपूजा विधीयते । तदाख्याः · सर्वतोभंद्रचतुर्मुखमहामहाः ॥ २७ ॥ अर्थ-अनेक शूरवीर आदि लोगोंने जिनपर मुकुट बांधा हो उन्हें मुकुटबद्ध राजा कहते हैं ऐसे मुकुटबद्ध राजा ओंके द्वारा भक्तिपूर्वक जो जिनपूजा की जाती है उसे चतुर्मुख, सर्वतोभद्र अथवा महामह कहते हैं । यह यज्ञ प्राणीमात्रका कल्याण करनेवाला है इसलिये इसका नाम सर्वतोभद्र है, चतुर्मुख अर्थात् चार दरवाजेवाले मंडपमें किया जाता है इसलिये चतुर्मुख कहलाता है और अष्टाह्निककी अपेक्षा बडा है| | इसलिये इसे महामह कहते हैं । इसप्रकार इसके तीनों ही नाम |
SR No.022362
Book TitleSagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pandit, Lalaram Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1915
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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