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________________ (४९) मूकी दईने रागद्वेष रहित चतुर पुरुषोए सदाकाळ संतोषमा रहे जोईए. लोकागृह प्रियतमा सुत जीवितादि वाताहतध्व जपटाग्रचलं समस्तं ॥ व्यामोह मत्र परिहृत्य धनादि मित्रे धर्मे मतिं कुरुत किं बहुभिर्वचोभिः ॥ ५४ ॥ भावार्थ :- हे भ्रातृवर्ग, आ घर, स्त्री, पुत्र, जीवतर ईत्यादि धुं पवनथी अथाती ध्वजाना कपडा जेवुं चंचळ समजजो ? अने धनादि मित्रना विषे मोह मूकी देई धर्म ऊपर चित्त लगाडो एटले बस छे; वधारे शुं कहेतुं जोईए ? पुत्रादि शोक शिखिशांतिकरी यतींद्र श्री पद्मनंदि वदनां बुधर प्रसूतिः ॥ सद्बोध सस्य जननी जयतादनित्य पंचाशदुन्नतधियाममृतैकवृष्टिः ॥ ५५ ॥ भावार्थ:- आ अनिस पंचाशत् जयवंत हज्यो ते केवुं छे के, श्री पद्मनंदि आचार्यना मुखरुपी मेघथी मीकळेलं छे; तेथी उत्तम बुद्धिवाळा माणसनी उपर अमृतनी दृष्टि करे .
SR No.022361
Book TitleAnitya Panchashat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi Acharya
PublisherMotilal Trikamdas Malvi
Publication Year1966
Total Pages78
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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