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- प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन का दान देना अतिथि संविभाग है। पोषध की पारणा के समय में न्यायपूर्वक अनिन्दनीय व्यापार के द्वारा उपार्जित द्रव्य से खरीदे गये शुद्ध चावल, घी आदि द्रव्यों से साधु के उद्देश्य से न बनाये गये भोजन में से घर आये हुए साधुओं को विधिपूर्वक जो दान दिया जाता है, उसे अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत कहा गया है।
पात्र ग्रहण से यह स्पष्ट है कि घर पर पधारे हुए साधुओं को ही आहार दान देना हितकर है। साधुओं को आहार दान उनकी बस्तियों में जाकर अपने पात्र में नहीं देना चाहिए। अतिथि संविभागीव्रती श्रावक, जो वस्तु साधुओं को नहीं देता, पारणा के समय वह उस वस्तु को भी स्वयं नहीं खाता है155 । यह व्रत श्रावक के लिए आचरणीय है।
इस प्रकार श्रावक के बारह व्रत होते हैं। श्रावक इन बातों का सम्यक् पालन करता है तथा इन व्रतों का पालन करता हुआ वह अपनी शक्ति के अनुसार गाजे-बाजे, स्वजन-परिवार के बड़े भारी समारोह के साथ, जिससे प्रवचन की प्रभावना हो, उस ढंग से चैत्यालयों की प्रतिष्ठा करता है तथा दीप, धूप, माला आदि से जिनेन्द्र भगवान की अर्चना करता है। उसकी सदैव यही अभिलाषा रहती है कि कब साधु बनकर कषाय रुपी शत्रुओं को जीतूं। इसके साथ ही वह तीर्थंकर भगवान, आचार्य, उपाध्याय आदि गुरु और साधुजनों को नमस्कार करने में सदैव संलग्न रहता है तथा वह शास्त्र प्रतिपादित षट्कर्मों को नित्य प्रति करता रहता है। देवपूजा, गुरुउपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान- ये छह दैनिक षट्कर्म हैं। इनमें देवपूजा आत्म शुद्धि का विशेष कारण है। स्वाध्याय धर्म की स्थिरता का हेतु है और दान-कर्म लोकोपकार का मुख्य साधन है 156। संलेखना व्रत :
श्रावक के बारह व्रतों के अतिरिक्त एक अन्य व्रत संलेखना व्रत है। इस व्रत का पालन श्रावक जीवन के अंतिम व्रत है। इस व्रत का पालन श्रावक जीवन के अंतिम समय में करता है। अतः यह भी एक उत्तम व्रत है।
प्रशमरति प्रकरण में संलेखना व्रत के स्वरुप का कथन किया गया है तथा बतलाया गया है कि भाव कषायों को कृश करते हुए मरण करना संलेखना है। इसे समाधि-मरण या संन्यासमरण कहते हैं। श्रावक का जब मरणकाल आता है तब वह शरीर और कषाय आदि को कृश करके आज्ञाविचय आदि ध्यान के द्वारा जीने-मरने की इच्छा आदि दोषों से रहित संलेखना पूर्वकमरण करता है 157 |
गृहस्थ द्वारा मोक्ष प्राप्ति नियम :
इस प्रकार वह श्रावक व्रतों का पालन करके संलेखनापूर्वक आराधना कर मरणोपरांत देव लोक में इन्द्र पद को प्राप्त करता है। वहाँ पर अपने पद के अनुरुप जघन्य, मध्यम अथवा उत्कृष्ट सुख को भोगता हुआ आयु के क्षय होने पर वहाँ से च्युत होकर वह मनुष्य लोक