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पंचम अध्याय पर मुक्त जीव उर्ध्वगमन करता है। बन्यच्छेदात, एरण्डबीजवत् : ___ मुक्त जीव के उर्ध्वगमन का तीसरा कारण कर्मबन्ध का उच्छेद है। जिस प्रकार एरण्ड के बीज के ऊपर चढ़े हुए छिलके के फटने पर उसका बीज ऊपर की ओर जाता है, उसी तरह कर्मबन्धन के कट जाने पर मुक्त जीव उर्ध्वगमन करता है। तथागतिपरिणामाच्च, अग्निशिखावच्च :
जिस प्रकार अग्नि की शिखा स्वाभावतः उपर की ओर उठती है, उसी प्रकार जीव का स्वभाव उर्ध्वगमन करना होता है। जबतक कर्म जीव के इस स्वाभाविक शक्ति को रोके रहता है, तबतक वह पूर्णतया उर्ध्वगमन नहीं कर पाता है, मगर जीव की इस स्वभाविक शक्ति को रोकनेवाले कर्मों के नष्ट होने पर जीव उर्ध्वगमन करता है। इस प्रकार मुक्त जीव के उर्ध्वगमन का चौथा कारण समस्त संग-परिग्रह से मुक्त होना है।
मुक्त जीव का लोकान्त तक गमन : __ मुक्त जीव उर्ध्वगमन करता है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह निरन्तर उर्ध्वगमन ही करता रहता है। वह जीव लोक के अंतिम भाग तक ही उर्ध्वगमन करता है, इससे आगे वह नहीं जाता हैं, क्योंकि गति में सहायक निमित्त कारण, रुप थर्मास्तिकाय द्रव्य का अभाव होता है। अतः जिस प्रकार जहाज या मछली वहीं तक जा सकते हैं जहाँ तक उनका सहायक पानी होता है, उसी प्रकार मुक्त जीव भी वहीं तक जाते हैं जहाँ तक सहायक धर्म द्रव्य वर्तमान है11। अतः यह सिद्ध है कि मुक्त जीव का उर्ध्वगमन लोकान्त तक ही है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि मुक्त जीव सर्वथा कर्मबंधन से मुक्त होता है। इसलिए ऐसे जीव का संसार में पुनरागमन संभव नहीं है। मोक्ष-हेतु : __ प्रशमरति प्रकरण में मोक्ष के हेतु पर प्रकाश डाला गया है और बतलाया गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रुप त्रिरत्न मोक्ष के हेतु हैं। इनमें से किसी एक के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। केवल मोक्ष के विषय में श्रद्धा रखने से मोक्ष-प्राप्ति नहीं होती है और न मात्र सम्यग्ज्ञान से ही मोक्ष संभव है। यदि सम्यग्ज्ञान मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति मानी जायेगी, तो सम्यग्ज्ञान प्राप्त होते ही साधक मुक्त हो जायेगा, फिर वह थर्मोपदेश आदि कार्य आकाश की तरह नहीं कर सकेगा। उसी प्रकार केवल सम्यग्चारित्र से भी मोक्ष प्राप्त करना असंभव है। अतः मात्र सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान या सम्यक् चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है।