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चतुर्थ अध्याय (क) उच्च गोत्र कर्म :
जिस कर्म के उदय से विशिष्ट जाति तथा ऐश्वर्य आदि प्राप्त होता है, वह उच्च गोत्र कर्म है। (ख) नीच गोत्र :
जिस कर्म के उदय से निदित कुल में जन्म होता है, वह नीच गोत्र कर्म है। अन्तराय कर्म :
कर्म का आठवाँ भेद अन्तराय कर्म है। यहाँ अन्तराय का अर्थविघ्न उत्पन्न करना। प्रशमरति प्रकरण में अन्तराय कर्म का स्वरुप का उल्लेख कर बतलाया गया है कि जिस कर्म के उदय से दान लाभ आदि में विघ्न उत्पन्न होता है, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं 60 ।
अन्तराय कर्म की उत्तर प्रकृतियां पांच हैं- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय 6।
इस प्रकार इन आठ कर्मों की उत्तर प्रकृतियाँ संतानवे होती हैं। नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियों के भेदों को मिलाने से, जैसे गति के चार भेद हैं, सरसठ नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ और शेष कर्मों की उत्तर प्रकृतियां पचपन एक सौ बाईस उत्तर प्रकृतियाँ होती हैं। उनमें से बन्ध एक सौ बीस ही प्रकृतियों का होता है 621
पूर्वोक्त प्रकार से उत्तर प्रकृतियों के एक सौ बाईस भेद बतलाये गये हैं। स्थितिबन्ध, अनुभाग बन्थ और प्रदेश बंध की अपेक्षा वह प्रकृति बन्थ तीव्र, मन्द अथवा मध्यम होता है तथा उसका उदय भी तीव्र, मन्द अथवा मध्यम होता है। तीव्र परिणामों से तीव्र प्रकृति बंध होता है और मध्यम परिणामों में विशेषता होने से उदय में भी विशेषता होती है। आशय यह है कि जब प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति होती है तब उसका अनुभव और प्रदेश बन्थ भी उत्कृष्ट होता है और उससे उस उत्कृष्ट स्थिति में बन्थ और उदय दोनों तीव्र होते हैं। इसी प्रकार जब प्रकृति की स्थिति जघन्य होती है, तो अनुभव और प्रदेश भी जघन्य होते हैं तथा उससे स्थिति का बन्ध-उदय मन्द होता है। इसी तरह मध्यम भी होता है।
जीव-कर्म-सम्बन्ध :
जीव और कर्म का अपना स्वतंत्र स्वरुप एवं अस्तित्व है, तथापि आत्मा और कर्म का परस्पर में सम्बन्ध है। इनका यह सम्बन्ध धन और धनी जैसे तात्कालिक नहीं है, बल्कि सोना और किट्टकालिमा की तरह अनादि कालीन है 64।
बन्थ के विश्लेषण में बतलाया गया है कि राग, द्वेष और मोह के कारण कर्मरुपी रज आत्म-प्रदेशों में चिपक जाती है। कहा भी गया है कि संसारी जीव के राग-द्वेष रुप परिणाम