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चतुर्थ अध्याय होता है और कर्मबंध से रागादिक परिणाम होते हैं। अतः कर्म बंध का मूल कारण राग-द्वेष ही है । कर्म-भेद :
प्रशमरति प्रकरण में मूल कर्मबन्थ के आठ भेद बतलाये गये हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय 421 ज्ञानावरण कर्म :
कर्म का पहला भेद ज्ञानावरण कर्म है। ज्ञानावरण का सामान्य अर्थ होता है- ज्ञान पर आवरण। प्रशमरति प्रकरण में इसके स्वरुप का कथन किया गया है और बतलाया गया है कि जो कर्म क्षायोपशमिक और क्षायिक ज्ञान को ढंकता है, यह ज्ञानावरण कर्म है431 ज्ञानावरण कर्म की पांच उत्तर प्रकृतियाँ हैं- मति ज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनः पर्यय ज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण । दर्शनावरण कर्म :
कर्म का दूसरा भेद दर्शनावरण कर्म है। दर्शनावरण कर्म का समान्य अर्थ है - दर्शन पर आवरण। प्रशमरति प्रकरण में दर्शनावरण के स्वरुप का कथन करते हुए बतलाया गया है कि जो कर्म चक्षुदर्शनादि को आच्छादित करता है, वह दर्शनावरण है 45।।
दर्शनावरण की उत्तर प्रकृतियाँ नौ हैं जो निम्न प्रकार हैं चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि। वेदनीय कर्म :
कर्म का तीसरा भेद वेदनीय कर्म है। वेदनीय का सामान्य अर्थ है- सुख-दुःख का अनुभव करना। प्रशमरति प्रकरण में वेदनीय कर्म के स्वरुप का उल्लेख हुआ है तथा बतलाया गया है कि जो कर्म सुख और दुःख का अनुभव करता है, वह वेदनीय है 471
वेदनीय दो प्रकार के हैं - (1) साता और (2) असाता 48 । मोहनीय क्रम :
कर्म का चौथा भेद मोहनीय कर्म है। मोहनीय कर्म आठ कर्मों में प्रधान है, क्योंकि यही संसार रुपी वृक्ष का बीज है 49। प्रशमरति प्रकरण में मोहनीय कर्म के स्वरुप का कथन करते हुए बतलाया गया है कि जिस कर्म के उदय से जीव मोहा जाता है, वह मोहनीय कर्म है501
मोहनीय कर्म के दो मूल भेद हैं- दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। इनमें दर्शन मोहनीय कर्म प्रबल हैं।