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________________ ३६ अयोगव्यवच्छेदः पदार्थोंके स्वरूप कथन करनेका विस्तार, अर्थात् यथास्थित पदार्थोंके स्वरूप कथन करनेका विस्तार जैसा तैनेकरा है, ऐसा जगत् में कोईभी नही कर सक्ता है, इसवास्ते तेरा कथन हम अनुपम जानते हैं. और (परेषां) अन्योंका ( अस्थाननिर्बंधरसं) अस्थाननिर्बंधरस, अर्थात् अन्योंने असमंजसपदार्थोंके स्वरूपकथनरूप गोले गिरडाये हैं, वेभी उपमारहित हैं, तिनोंके विना ऐसा असमंजसकथन अन्य कोईभी नही कर सक्ता है. ॥ २२ ॥ अथ स्तुतिकार अज्ञानियोंके प्रतिबोध करनेमें अपनी असमर्थता कहते हैं. - अनाद्यविद्योपनिषन्निषष्णै विशृंखलैश्चापलमाचरद्भिः । अमूढलक्ष्योपि पराक्रियेयत् त्वत्किंकरः किं करवाणि देव ॥ २३ ॥ व्याख्याः अनादि अविद्या, अर्थात् मिथ्यात्व अज्ञानरूप उपनिषद्रहस्यमें तत्पर हुयोंने, और विशृंखलोंने, अर्थात् बिना लगाम स्वच्छंदाचारी प्रमाणिकपणारहितोंने, और चपलता अर्थात् वाग्जालकी चपलताके आचरण करतेहुयोंने, इन पूर्वोक्त विशेषणोंविशिष्ट महाअज्ञानीपुरुषोंने जेकर तेरे अमूढ लक्ष्यकोंभी - जिसके उपदेशादि सर्व कर्म निष्फल न होवें तिसकों अमूढलक्ष्य कहते हैं, अर्थात् सर्वज्ञ ऐसे तेरे अमूढलक्ष्यकोंभी, जेकर पूर्वोक्त पुरुष खंडन करे - तिरस्कार करे, जैसे कोई जन्मांध सूर्यके प्रकाशकों पराकरण करे, न माने, तो तिसकों निर्मल नेत्रवाला पुरुष क्या करे ? ऐसे ही अज्ञानी तेरा तिरस्कार करे, तो हे देव! स्वस्वरूपमें क्रीडा करनेवाले सर्वज्ञ वीतराग! तेरा किंकर मैं हेमचंद्रसूरि, क्या करूं ? कुछभी तिनकेतांई
SR No.022359
Book TitleAyogvyavacched Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaypradyumnasuri
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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