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________________ तत्त्वनिर्णय प्रासादे कुवासना पाशविनाशनाय नमोस्तु तस्मै तव शासनाय ॥ २१ ॥ ३५ व्याख्याः - ( यदीयसम्यक्त्वबलात्) जिसके सम्यक्तबलसें, अर्थात् जिसके सम्यग् ज्ञानके बलसें ( भवादृशानां ) तुम्हारेसरीखे परमाप्तजीवनमोक्षरूप महात्मायोंके ( परमस्वभावम् ) शुद्धस्वरूपकों ( प्रतीम:) हम जानते हैं ( तस्मै ) तिस ( तव) तेरे ( शासनाय) शासनकेतांइ हमारा (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे, कैसे शासनकेतांई ? (कुवासनापाशविनाशनाय) कुवासनारूपपाशीके विनाश करनेवाला तिसकेतांई । - भावार्थ:- जेकर हे भगवन् ! तेरा शासन न होता तो, हमारे सरीखे पंचमकालके जीव तुम्हारे सरीखे परमाप्तपुरुषोंके परम शुद्धस्वभावकों कैसें जानते ? परंतु तेरे आगमसें ही सर्वकुंजाना; और तेरे आगमनेही पांच प्रकारके मिथ्यात्वरूप कुवासनापाशीका विनाश करा है, इसवास्ते तेरे शासनकेतांई हमारा नमस्कार होवे. ॥ २१ ॥ अथ स्तुतिकार दो वस्तुयों अनुपम कहते हैं अपक्षपातेन परीक्षमाणा द्वयं द्वयस्याप्रतिमं प्रतीमः । यथास्थितार्थप्रथनं तवैतदस्थाननिर्बंधरसं परेषाम् ॥ २२ ॥ व्याख्या:- (अपक्षपातेन) पक्षपातरहित हो कर ( परीक्षमाणाः ) जब हम परीक्षा करते हैं तो, (द्वयस्य) दो जनोंकी (द्वयं) दो वस्तुयों ( अप्रतिमं) अनुपम उपमा - रहित ( प्रतीमः ) जानते हैं; हे भगवन् ! (तब) तेरा ( एतत् ) यह ( यथास्थितार्थप्रथनं) यथास्थित
SR No.022359
Book TitleAyogvyavacched Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaypradyumnasuri
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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