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________________ ३७ तत्त्वनिर्णय प्रासादे नही कर सकता हूं. जैसें जन्मके अंधकों अंजनवैद्य कुछ नही कर सकता है ॥ २३ ॥ अथ स्तुतिकार. भगवंतकी देशना भूमिकी स्तुति करते हैंविमुक्तवैरव्यसनानुबंध: श्रयंतियां शाश्वतवैरिणोऽपि । परैरगम्यां तव योगिनाथ तां देशनाभूमिमुपाश्रयेऽहम् ॥ २४ ॥ व्याख्या:- हे योगिनाथ ! (यां) जिस तेरी देशनाभूमिकों (शाश्वतवैरिण:-अपि) शाश्वतवैरीभी, अर्थात् जिनका जातिके स्वभावसें ही निरंतर वैरानुबंध चला आता है, जैसें बिल्लि मूषकका, श्वान बिल्लिका, वृक अजाका, इत्यादि; वेभी सर्व, (विमुक्तवैरव्यसनानुबंधाः) स्वजातिका शाश्वत वैर रूपव्यसनके अनुबंधसे विमुक्त रहित हुए थके (श्रयंति) आश्रित होते हैं। यह भगवंतका अतिशय है कि, शाश्वतवैरीभी भगवान्की देशनाभूमि समवसरणमें जब आते हैं, तब परस्पर वैर छोडके परममैत्रीभावसे एकत्र बैठते हैं; और जो (परैः) परवादीयोंने (अगम्यां) अगम्य है, अर्थात् परवादी जिस देशनाभूमिका स्वरूप नही जान सक्ते हैं मिथ्यात्व अज्ञानरूप पटलोंसें अंधे होनेसें; (तां) तिस (तव) तेरी (देशनाभूमि) देशनाभूमिकों (अहम्) मैं (उपाश्रये) उपाश्रित करता हूं-आश्रित होताहूं। जिससे मेराभी सर्वजीवोंके साथ वैरानुबंधरूप व्यसन छुट जावे. ॥ २४ ॥ अथस्तुतिकार परदेवोंका साम्राज्य वृथा सिद्ध करते हैं। मदेन मानेन मनोभवेन क्रोधेन लोभेन च संमदेन ।।
SR No.022359
Book TitleAyogvyavacched Dwatrinshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaypradyumnasuri
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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