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________________ 248 तिर्यच पंचेन्द्रिय एक प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने खेचर तिर्यंच हैं और स्थलचर एवं जलचर इससे अनुक्रम से संख्यात गुणा अधिक हैं। एक प्रतर के अन्दर २५६ अंगुल प्रमाण वाले सूचीखण्डों के समान अनुक्रम से संख्यातगुणाधिक नपुंसक खेचर, स्थलचर और जलचर जीव होते हैं। " मनुष्य लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन सम्मूर्च्छिम और गर्भज मनुष्य की एकत्रित संख्या उत्कृष्ट असंख्यात कालचक्र में होने वाले समय के समान है।" एक प्रदेशी" के एक श्रेणी में जितने खण्ड होते हैं उतने सम्मूर्च्छिम मनुष्य होते ६४ हैं। देव देवों की संख्या सामान्यतः प्रतर के असंख्यात भाग में रहने वाली असंख्य श्रेणियों में रहे आकाश प्रदेश के समान है। देवों की संख्या क्रमशः इस प्रकार है १. अनुत्तरवैमानिक देव पल्योपम के असंख्यात भाग के आकाश-प्रदेशों के बराबर हैं। " २. ऊपर के तीन ग्रैवेयक के देव पल्योपम के बृहत् असंख्यात भाग के आकाशप्रदेश समान हैं। " ३. ग्रैवेयक के मध्यमत्रिक और नीचे की त्रिक के देव तथा अच्युत, आरण, प्राणत एवं देवलोक के देव पल्योपम के असंख्यातवें भाग से विशेष गुणा अधिक हैं। ' ६७ ४. सहनार, महाशुक्र, लांतक, ब्रह्म, माहेन्द्र और सनत्कुमार देवलोक के देव घनकृत लोक की श्रेणि के असंख्यात भाग में रहे आकाश-प्रदेश के बराबर हैं। " ५. ईशान देवलोक से लेकर सौधर्म देवलोक तक के देव - देवियों की संख्या एक-दूसरे से संख्यात गुणा अधिक है। ६. तीन वर्गमूलों में विभाजित एक अंगुल प्रमाण क्षेत्र प्रदेश की राशि को द्वितीय वर्गमूल से गुणा करने पर प्राप्त परिणाम, प्रथम वर्गमूल के प्रदेश राशि के मान वाली एक प्रदेश श्रेणियों में घनकृत लोकाकाश के आकाश प्रदेशों की संख्या के बराबर भवनपति देव - देवियों की कुल संख्या है। ७० ७. एक प्रतर के अन्दर संख्यात कोटि योजन की लम्बाई वाले सूचिखण्डों की संख्या के बराबर व्यन्तर देव-देवियां होती हैं। "
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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