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________________ जीव-विवेचन (4) 247 बत्तीसवां मान द्वार : जीवों का मापन _मान अर्थात् माप। वस्तु जिससे सीमा में बांधी जाती है वह मान है। यह परिसीमन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चार प्रकार से होता है। द्रव्य से कोई वस्तु या जीव आदि की कितनी संख्या है, क्षेत्र से वह कितना स्थान घेरता है, काल से वह कितने समय पर्यन्त अवस्थित रहता है और भाव से उसके स्वभाव का क्या स्वरूप है, यह जाना जाता है। इन चारों अपेक्षाओं से किसी भी पदार्थ का अस्तित्व सम्पूर्ण रूप से जाना जा सकता है। स्थानांग सूत्र", अनुयोग द्वार सूत्र", व्याख्याप्रज्ञप्ति और सूत्रकृतांग" आगम ग्रन्थों में 'मान' शब्द की पर्याप्त चर्चा और भेदों का नामोल्लेख भी मिलता है। लोकप्रकाशकार के अनुसार लोक में जीवों की संख्या का निरूपण करना 'मान' है।२ सूक्ष्म एकेन्द्रिय सूक्ष्म अग्निकाय, पृथ्वीकाय, अप्काय और वायुकाय के जीव सम्पूर्ण लोक प्रमाण के असंख्य आकाशखण्ड के प्रदेशों की संख्या के बराबर हैं अर्थात् सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। इन चारों सूक्ष्म जीवों में भी लोकाकाश के समान असंख्य खण्ड हैं। सूक्ष्म अग्निकायादि जीवों में अनुक्रम से अधिकाधिक हैं। सूक्ष्म पर्याप्त एवं अपर्याप्त और बादर पर्याप्त एवं अपर्याप्त अनन्तकाय जीव अनन्त लोकाकाश के प्रदेशों के जितने हैं। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में निगोद के एक-एक जीव को स्थापित करने की प्रक्रिया को अनन्त बार करने पर जैसे लोकाकाश अनन्त बार निगोद जीवों से व्याप्त होता है, उतनी संख्या में यह अनन्तकाय जीव होते हैं।" बादर साधारण पर्याप्त वनस्पतिकाय से बादर अपर्याप्त जीव असंख्य गुणा होते हैं। इनसे असंख्य गुणा सूक्ष्म अपर्याप्त अनन्तकाय और सर्वाधिक सूक्ष्म पर्याप्त जीव हैं।" बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय, पृथ्वीकाय और अपकाय के जीव लोकाकाश में एक प्रतर के अन्दर सूच्य रूप अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण अंश की संख्या वाले होते हैं। आवली के सदृश घन समय से कुछ कम अग्निकाय के जीव होते हैं। घनरूप वाले लोकाकाश में असंख्य प्रतर में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने पर्याप्त बादर वायुकाय के जीव होते हैं। विकलेन्द्रिय एक अंगुल के संख्यातवें और असंख्यातवें भाग जितनी लम्बाई वाले एक प्रतर में जितनी सूचियां होती हैं उतने पर्याप्त और अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव होते हैं।
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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