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________________ 227 जीव-विवेचन (3) भी किया है। जैन दर्शन में ज्ञान के पाँच प्रकार मान्य हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। इनमें मति और श्रुतज्ञान को परोक्ष एवं अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष की श्रेणि में रखा जाता है। मतिज्ञान की चार अवस्थाएँ हैंअवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। इनका एक निश्चित क्रम है। अवग्रह के अनन्तर ईहा, ईहा के अनन्तर अवाय, फिर धारणा ज्ञान होता है। ज्ञान की प्रक्रिया का अत्यन्त सूक्ष्म एवं मनोवैज्ञानिक विवेचन जैन दर्शन की विशेषता है। श्रुतज्ञान मतिज्ञान की अपेक्षा विस्तृत एवं विशुद्ध है। इसके अक्षरश्रुत आदि अनेक भेद किए गए हैं। ज्ञानावरण का सर्वथा क्षय होने पर केवलज्ञान प्रकट होता है। केवलज्ञान के अन्तर्गत सभी द्रव्यों की सभी पर्यायों का साक्षात् प्रत्यक्ष होता है। मतिज्ञानी किसी अपेक्षा से द्रव्य से सर्व द्रव्य को, क्षेत्र से लोकालोक को, काल से सर्वकाल को और भाव से सर्व भावों को जानता-देखता है, किन्तु वह सर्व द्रव्यों की सर्व पर्यायों को नहीं देखता। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी के सम्बन्ध में भी विशेष कथन किए गए हैं जो जैन दर्शन की ज्ञान सम्बद्ध की धारणा को स्पष्ट करते हैं। ६. जैन दर्शन की यह मान्यता है कि ज्ञान गुण जीव का स्वभाव है। ज्ञानावरण कर्म के कारण उसकी ज्ञान शक्ति बाधित होती है। ज्ञानावरण कर्म का पूर्ण क्षय होने पर जीव में पूर्ण ज्ञान प्रकट हो जता है जिसे केवलज्ञान भी कहा गया है। जब मिथ्यादृष्टि से कोई जीव युक्त होता है तो उसका समस्त ज्ञान अज्ञान में परिणत हो जाता है। अज्ञान के तीन ही प्रकार बताए हैं, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान। ७. विनयविजय ने जीवों का वर्णन दर्शन के आधार पर भी किया है। दृष्टि द्वार में जहाँ सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, मिश्र दृष्टि की चर्चा की गई है वहाँ दर्शन द्वार में ज्ञान के पूर्व होने वाले दर्शन का भी निरूपण किया गया है। यह दर्शन चार प्रकार का प्रतिपादित है चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। ८. जीव का लक्षण उपयोग है। ज्ञान एवं दर्शन के व्यापार को उपयोग कहा गया है। ज्ञान को साकारोपयोग और दर्शन को अनाकारोपयोग कहा गया है। दर्शन के पश्चात् ज्ञानोपयोग होता है। अतः इनका क्रमभाव स्वीकार किया गया है। इनमें प्रत्येक की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। अन्तर्मुहूर्त में ही ये क्रमशः बदलते रहते हैं। ६. जीव के लिए आहार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आहार से ही औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर, पर्याप्तियों और इन्द्रियों का निर्माण होता है। विधि के आधार पर आहार के तीन
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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