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________________ 217 जीव-विवेचन (3) आत्मा एक विशिष्ट प्रकार के आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति करती है। ऐसी अनुभूतिपूर्व में कभी नहीं हुई होती है, अतः यह अपूर्व कही जाती है। २०६ ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया से कर्मावरणों के क्षीण होने से जीव में एक प्रकार की आत्मशक्ति का प्रकटन हो जाता है, जिसके फलस्वरूप वह पूर्वबद्ध कमों की स्थिति और तीव्रता को कम करता है और साथ ही नवीन कर्मों का बंध भी अल्पकालिक एवं अल्पमात्रा में ही करता है। इस अवस्था में साधक उस प्रकटित आत्मशक्ति के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों की कालस्थिति एवं तीव्रता को कम करता है तथा कर्म-वर्गणाओं को ऐसे क्रम में रख देता है जिसके फलस्वरूप उनका समय के पूर्व ही फल भोग किया जा सके। साथ ही वह अशुभ फल देने वाली कर्म प्रकृतियों को शुभ फल देने वाली कर्म प्रकृतियों में परिवर्तित करता है एवं उनका मात्र अल्पकालीन बन्ध करता है। इस प्रक्रिया को पारिभाषिक शब्दावली में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण और अपूर्वस्थितिबन्ध कहा जाता है। आठवें गुणस्थान का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त मात्र है। अन्तर्मुहूर्त के काल में इस गुणस्थान में प्रतिसमय जीवों के अध्यवसाय स्थान परिवर्तित होते रहते हैं, इसलिए आठवें गुणस्थान के अध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकाकाश प्रदेश परिमाण वाले होते हैं। इस गुणस्थान में भिन्न-भिन्न समय में जीव, जो परिणाम पूर्व में कभी भी नहीं प्राप्त हुए थे ऐसे अपूर्व परिणामों को धारण करते रहते हैं। अतएव अपूर्वकरण गुणस्थान में भिन्न-भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में कभी भी सदृशता नहीं पाई जाती है, किन्तु एक समसमयवर्ती जीवों के परिणामों में सदृशता और विसदृशता दोनों ही पाई जाती है एदम्हि गुणट्ठाणे विसरिस-समय-ट्ठिएहि जीवेहि। पुव्वमपत्ता जम्हा होति अपुव्वा हु परिणामा।। भिण्णेसमय-ट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सव्वदा सरिसो। करणेहि एक्क-समय-ट्ठिएहि सरिसो विसरिसो य।। इस गुणस्थान में साधक अधिकांश वासनाओं से मुक्त हो जाते हैं और मुक्ति को अपने अधिकार क्षेत्र की वस्तु मान लेते हैं। सदाचरण की दृष्टि से सच्चे पुरुषार्थ भाव का प्रकटीकरण इसी अवस्था में होता है। विकास की चौदह श्रेणियों में प्रथम सात श्रेणियों में अनात्म का आत्म पर अधिशासन होता है और अन्तिम सात श्रेणियों में आत्म का अनात्म पर अधिशासन हो जाता है। सातवें गुणस्थान से जीव अपनी विकास यात्रा दो मार्गों- उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी से आरम्भ करते हैं। इसलिए अपूर्वकरण गुणस्थान में चारित्र मोहनीय के क्षय की अपेक्षा से क्षपक श्रेणी जीव के क्षायिकभाव होता है और चारित्र मोहनीय के उपशम की अपेक्षा से उपशमक श्रेणी जीव के
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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