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________________ 216 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन जो साधक अन्तर्मुहूर्त से अधिक देहातीत भाव में रहता है तो वह विकास की अग्रिम श्रेणि में प्रस्थान कर जाता है अथवा देहभाव की जागृति होने पर पुनः छठे गुणस्थान में चला जाता है। इस गुणस्थान से आगे की विकास यात्रा जीव दो प्रकार से करता है। एक तो वह जिसमें कर्मदलिकों का उपशम किया जाता है और दूसरा वह जिसमें कर्मदलिकों को पूर्ण विनष्ट कर आगे बढ़ जाता है। पारिभाषिक शब्दावली में इन्हें क्रमशः उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणि कहा जाता है। सातवें गुणस्थान के अन्तिम समय में साधक इन दोनों श्रेणियों में से किसी एक का चयन करता है अथवा पुनः छठे गुणस्थान में लौट जाता है। उपशम श्रेणी से आरोहण करने वाला जीव अवश्य ही निम्न स्तर के गुणस्थानों में पुनः आता है, जबकि क्षपक श्रेणी वाला जीव लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। 8. अपूर्वकरण गुणस्थान विकासोन्मुखी आत्मा जब प्रमाद को सर्वथा पराभूत कर देती है, तब वह आठवें गुणस्थान में आरोहण करती है। पूर्व गुणस्थानों की अपेक्षा इस गुणस्थान में आत्मिक परिणामों की अधिक विशुद्धता के कारण इसे अपूर्वकरण कहा जाता है।३० 'अपूर्वकरण' शब्द 'अपूर्व' और 'करण' इन दो शब्दों से निष्पन्न है। अपूर्व से तात्पर्य है जो पूर्व में न हुआ हो और करण अर्थात् परिणाम। जो आत्मिक परिणाम पूर्व में प्राप्त न हुआ हो वह अपूर्वकरण कहलाता है- करणाः परिणामाः न पूर्वाः अपूर्वाः।३०२ लोकप्रकाशकार के अनुसार स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि, गुणसंक्रम और अपूर्वबन्ध इन पाँचों के जब पूर्व की अपेक्षा अधिक विशुद्ध परिणाम होते हैं तो वह आत्मिकगुण परिणाम अपूर्वकरण गुणस्थान होता है स्थितिघातो रसघातो गुणश्रेणिस्तथा परा। गुणानां संक्रमश्चैव बन्धो भवति पंचमः ।। __एषां पंचानामपूर्वकरणं प्रागपेक्षया। भवेद्यस्यासावपूर्वकरणो नाम कीर्तितः।।२०३ अभिधानराजेन्द्रकोश में गुणस्थान की दृष्टि से अपूर्वकरण शब्द के व्युत्पत्त्यर्थ का उल्लेख मिलता है-"अपूर्वामपूर्वा क्रियां गच्छतीत्यपूर्वकरणम्। तत्र च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमाः अन्यश्च स्थितिबन्धः इत्येते पंचाप्यधिकारा यौगपद्येन पूर्वमप्रवृत्ताः प्रवर्तन्ते इत्यपूर्वकरणम् । ३०० तीन बादर कषायों अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण की और संज्वलन क्रोध एवं मान कषायों की इस गुणस्थान में निवृत्ति हो जाती है, इसीलिए इसे निवृत्तिबादर गुणस्थान की संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है।०५ प्रो. सागरमल जैन के अनुसार इस अवस्था में कर्मावरण के काफी हल्का हो जाने के कारण
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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