SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय जीव-विवेचन (3) प्रस्तुत अध्याय में जीव का विवेचन संज्ञा, संज्ञित, इन्द्रिय, वेद, दृष्टि, ज्ञान, दर्शन, उपयोग, आहार एवं गुणस्थान द्वारों के आधार पर किया जा रहा है। इससे जीवों की अन्य अनेक विशेषताएँ हो सकेंगी। इक्कीसवां द्वार : संज्ञा-विवेचन प्रायः हम आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह इन चार संज्ञाओं से परिचित हैं, किन्तु जैन वाङ्मय में 'संज्ञा' शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में हुआ है, यथा १. 'संज्ञा' शब्द लौकिक व्यवहार में 'नाम' अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसे पूज्यपाद देवनन्दी ___ने सर्वार्थसिद्धि टीका में परिभाषित किया है-संज्ञा नामेत्युच्यते' २. सर्वार्थसिद्धिकार ने संज्ञा का व्युत्पत्तिपरक अर्थ किया है-'संज्ञानं संज्ञा' अर्थात् पहचानना। ३. उमास्वाति ने अपने ग्रन्थ 'तत्त्वार्थ सूत्र' में संज्ञा को मतिज्ञान का पर्यायवाची स्वीकार ___ करते हुए लिखा है- 'मतिःस्मृतिःसंज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्' ४. गोम्मटसार जीवकाण्ड के अनुसार नोइन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम या तज्जन्य ज्ञान संज्ञा कहलाता है- णोइंदियआवरणखओवसमं तज्जबोहणं सण्णा' ५. तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद देवनन्दी ने आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा स्वीकार करते हुए उसे परिभाषित किया है- 'आहारादिविषयाभिलाषः संज्ञेति' ये संज्ञाएँ इहलोक एवं परलोक में दुःख की कारण बनती हैं, यथा इह जाहि बाहिया वि य जीवा पावंति दारुणं दुक्खं । सेवंता वि य उभए ताओ चत्तारि सण्णाओ।।' अर्थात् जिनसे बाधित होकर जीव इस लोक में दारुण दुःख को प्राप्त करते हैं और जिनका सेवन करने से जीव दोनों ही भवों में दारुण दुःख को पाते हैं, उन्हें संज्ञा कहते ६. 'आगमप्रसिद्धि वांछा संज्ञा अभिलाष इति गोम्मटसार जीवकाण्ड की प्रस्तुत गाथा में वांछा, अभिलाषा एवं संज्ञा को पर्यायवाची माना गया है।
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy