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________________ 126 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन पंचेन्द्रिय, मनुष्य, भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और प्रथम दो देवलाक के देव ये सब मृत्यु के बाद पृथ्वीकाय, अपकाय, अग्निकाय, वायुकाय, प्रत्येक वनस्पतिकाय और अपर्याप्त निगोद में आकर उत्पन्न होते हैं। अतः बादर एकेन्द्रिय की गति दो और आगति तीन हैं। ........ विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) - पृथ्वीकायादि पाँचों स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय तथा संख्यात आयुष्य वाले पंचेन्द्रिय तिथंच तथा मनुष्य इन दसों स्थानकों के अन्दर विकलेन्द्रिय जीवों की गति है और इन्हीं दसों स्थानों से इनकी आगति होती है। नारक, देव और असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंच और मनुष्य में इनकी गति-आगति नहीं है। अतएव ये जीव दो गति और दो आगति वाले हैं। सम्मूर्छिम तिर्यच पंचेन्द्रिय- जलचर, स्थलचर (चतुष्पद और परिसर्प) और खेचर- जीव चार गतियों में जाते हैं और दो गतियों से आते हैं। नरक में रत्नप्रभा पहली नरक तक, तिर्यंच में सभी तिर्यंचों में, मनुष्य में संख्यात एवं असंख्यात आयुष्य वाले मनुष्यों में और देवों में भवनपति और वाणव्यन्तरों में ये जीव उत्पन्न होते हैं।" ___एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और संज्ञी तथा असंज्ञी तिथंच जीव सम्मूर्छिमतिर्यंच में उत्पन्न होते हैं। देव अथवा नरक से कोई भी जीव सम्मूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता।७२ गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय- गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव मरकर सातवीं नरक तक, सभी तिर्यंचों, मनुष्यों और सहनार तक के देवलोक में जाते हैं। अर्थात् मरणोपरान्त इनका गमन चारों गतियों में हो सकता है। गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की नरक में उत्पन्न होने की स्थिति को जीवाजीवाभिगम सूत्र में विशेष रूप से उद्धृत किया है-“असंज्ञी जीव पहले नरक तक, सरीसृप दूसरे नरक तक, पक्षी तीसरे नरक तक, सिंह चौथी नरक तक, सर्प पाँचवीं नरक तक, स्त्रियाँ छठी नरक तक और मत्स्य तथा मनुष्य सातवीं नरक तक जा सकते हैं।" उपाध्याय विनयविजय ने भी इसे अपने ग्रन्थ लोकप्रकाश में पुष्ट किया है- “रौद्रध्यान आदि के कारण जिन्होंने महापाप उपार्जन किया हो, ऐसे परस्पर हिंसा करने वाले मत्स्य आदि जलचर जीव सातों नरक में जाते हैं। सिंह आदि हिंसक जीव चार पैर वाले प्रथम चार नरक तक जाते हैं। उरपरिसर्प पाँचवीं नरक तक, पक्षी तीसरी नरक तक और भुजपरिसर्प दूसरी नरक तक जाते हैं।" संख्यात आयुष्यक गर्भज मनुष्य एवं गर्भज तिर्यच, पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय इन जीवों में देव गति करते हैं। गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय में जीव सातवीं नरक पर्यन्त से, असंख्याता वर्षायु वाले तिर्यंच को
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
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