SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन ३० लाख |२५ लाख | १५ लाख | १० लाख |३ लाख नारकावास संख्या ५कम १५ लाख भवनवासी देवों को छोड़कर शेष देवों का निवास स्थान ऊर्ध्वलोक और मध्यलोक है जबकि दस भवनपति देव के स्थान अधोलोक में रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर-नीचे एक-एक हजार योजन छोड़ बीच में एक लाख अठहत्तर हजार योजन में है।" देव" और नारक उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। उपाध्याय विनयविजय ने जीवों का सूक्ष्म और बादर स्वरूप में विभाजन करते हुए स्वस्थान, उपपात व समुद्घात की दृष्टि से उनके स्थानों का निरूपण करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार सूक्ष्म जीव सर्वलोकव्यापी हैं तथा बादर जीवों की पृथक्-पृथक् स्थानों पर व्याप्ति है। उनका यह स्थान प्रतिपादन महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ऐसा विस्तृत प्रतिपादन अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। तीसरा द्वार : पर्याप्ति विमर्श आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में पुद्गलों को परिणमन करने की जीव की शक्ति पर्याप्ति है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में मुनि कार्तिकेय भी ऐसा ही कथन करते हैं 'आहारसरीरींदियणिस्सासुस्सास-भास-मणसाणं। परिणई-वावारेसु य जाओ छच्चेव सत्तीओ।। तस्सेव कारणाणं पुग्गलखंधाण जाहु णिप्पत्ती। सा पज्जत्ती भण्णदि। अर्थात् आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन के व्यापारों में परिणमन करने की जो शक्तियाँ हैं वे छह ही हैं। आहार, शरीरादि में परिणमन करने की जो शक्तियाँ हैं उन्हीं को पर्याप्ति कहते हैं। ___ आहार, शरीरादि की यथायोग्य पूर्णता को पर्याप्ति कहते हैं और उनकी अपूर्णता अपर्याप्ति कहलाती है। षट्खण्डागम के धवलाटीकाकार भी कहते हैं- 'पर्याप्तियों की अपूर्णता अपर्याप्ति होती है। जीवन के हेतुत्व (कारणपने) की अपेक्षा न करके इन्द्रियादि रूप शक्ति की पूर्णता मात्र को पर्याप्ति कहते हैं। उपाध्याय विनयविजय अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जीव (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय) स्व-स्व शरीर योग्य पुद्गल वर्गणाओं का ग्रहण कर उनका आहार,
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy