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नवतत्त्वसंग्रहः ईस सब कर्म पीस मेरु नगरा जईस ऐसे भयो थिर धीस फेर नही कंपना कदे हीन परे ऐसो परम सुकल भेद छेद सब क्रिया ऐही नाम याको जंपना प्रथम सुकल एक योग तथा तीनहीमे एक जोग माहे दूजा भेद लेइ ठंपना काय जोग तीजो भेद चौथ भयो जोग छेद आतम उमेद मोष महिल धरंपना ४ जैसे छदमस्थ केरो मनोयोग ध्यान कह्यो तैसे विभु केवलीके काय छोरे ध्यान ठेरे है विना मन ध्यान कह्यो पूरव प्रयोग करी जैसे कुंभकारचाक एक वेरे है पीछे ही फिरत आप ऐसे मन करे थाप मन रुक गयो तो ही ध्यानरूप लेरे है वीतराग वैन ऐन मिथ्या नही कहै जैन ऐसे विभु केवलिने कर्म दूर गेरे है ५ इति चौथा. अथ अनुप्रेक्षाकथन, सवैया ३१ सापापके अपथ केरी नरकमे दुष परे सोगकी अगन जरे नाना कष्ट पायो है गर्भके वास वसे मूत ने पुरीष रसे जम्म पाय फेर हसे जरा काल खायो है फेर ही निगोद वसे अंत विन काल फसे जगमे अभव्य लसे अंत नही आयो है राजन ते रंक होत सुष मान देष रोत आतम अषंड जोत धोत चित ठायो है १ अथ लेश्याकथन, दोहराप्रथम भेद दो सुकलमे, तीजा परम वखान, लेश्यातीत चतुर्थ है, ए ही जिनमतवान १ अथ लिंगकथन, सवईया एकतीसापरीसहा आन परे ध्यान थकी नाही चरे गज मुनि जैसे षरे ममताकू छोरके देवमाया गीत नृत मूढता न होत चित सूषम प्रमान ग्यान धारे भ्रम तोरके दीषे जो ही नेत्रको ही सब ही विनास होही निज गुन टोही तोही कहूं कर जोरके घर नर नार यार धन धान धाम वार आतमसे न्यार धार डार पार दोरके १ इति लिंग. अथ फलदेव इंद चंद घंद दोनोचर नारविंद पूजन आनंद छंद मंगल पठतु है नाकनाथ रंभापति नाटक विबुध रति भयो हे विमानपति सुष न घटतु है हलधर चक्रधर दाम धाम वाम घर रात दिन सुषभर कालयूं कटतु है जोग धार तप ठये अघ तोर मोष गये सिद्ध विभु तेरी जयनाम यूं रटतु है १ इति फल. दोनो सुभध्यान धरे पापको न लेस करे ताते दोनो नही भये कारण संसार के संवर निज्जर दोय भाव तप दोनो पोय तप सब अघ खोय सब छार के याते दोनो तप भरे जीव निज चित धरे करम अंधारे टारे ग्यानदीप जार के करम करूर भूर आतमसे कीये दूर ध्यान केरे सूरने तो मारे है पछार के १ अथ आतम कर्म ध्यान दृष्टांतकथनवस्त्र लोह मही वंक मलिन कलंक पंक जलानल सूर नूर सोधन करतु है अंबर ने लोह मही आतमसरूप कही करत कलंक पंक मलिन कहतु है