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नवतत्त्वसंग्रहः ___ इहां छठे गुणस्थानकी उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुहूर्तकी कही है. सो प्रमत्त गुणस्थान अंतर्मुहूर्त ही रहै है. अने जे श्रीभगवतीजीमे प्रमत्त संयतिके कालकी पूछा करी है तिहां गुणस्थान आश्री नही है. तिहां तो प्रमत्तका सर्व काल एकठा कर्या देश ऊन कोड पूर्व कह्या है. पणि छठे गुणस्थानकी स्थिति नही कही. छठे गुणस्थानककी स्थिति अंतर्मुहूर्तकी कही है. उक्तं पंचसंग्रहे (गा० ४४)गाथा-'समयाओ अंतमहु(मुहू) प्रमत्त अ(म)पमत्तयं भयंति मुणी ।
देसूणा पुव्वकोडीओ (देसूणपुव्वकोडिं) अण्णोणं चिट्ठेहिं (चिटुंति) भयंता ॥" अर्थ-समयसे लेइ अंतर्मुहूर्त ताइं प्रमत्त अप्रमत्तपणा भेजे-सेवे मुनि देश ऊन पूर्व कोड आपसमे दोनो ही गुणस्थानमे रहै, 'एतावता छठे सातमे दोनीहीमे देश ऊन पूर्व कोड रहै, परंतु एकले छठे अथवा एकले सातमे देश ऊन पूर्व कोड नही रहै. इति गाथार्थः. शंका होय तो भगवतीजीकी टीकामे कह्या है सो देख लेना. अने मूल पाठमे देश ऊन पूर्व कोडकी कही है सो प्रमत्तका सर्व काल लेकर कही है. परंतु छठे गुण आश्री स्थिति भगवतीजीमे नही कही तथा सातमे गुणस्थानकी स्थिति जघन्य एक समयकी कही है. अने श्रीभगवतीजीमे सर्व अप्रमत्तके काल आश्री जघन्य तो अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देश ऊन पूर्व कोडकी. तिसका न्याय चूर्णिकारे ऐसा कह्या है-सातमे गुणस्थानसे लेइ कर उपशांतमोह लगे सर्व गुणस्थान अप्रमत्त कहीये. तिन सर्वका काल जघन्य एकठा करीये ते जघन्य अप्रमत्तका काल लाभे. इस अपेक्षा जघन्य स्थिति है, पिण सातमेकी अपेक्षा नही. तथा टीकाकारने मते अप्रमत्त गुणस्थानवाला अंतर्मुहूर्त पहिला काल न करे, इस वास्ते अंतर्मुहूर्तकी स्थिति है. आगे तत्त्व "केवली विदंति, सूत्राशय गंभीर है.
७२/ प्रमाण | अनंते | पल्योप-| ए | व | म् | सं |6-→ ए| व | म् |द्वार
मके असंख्य
ख्या
ए | व | म्|-|--
→
लोकस्य | सर्व | लोकके |-|-| → (द)र्शन | लोक | असंख्या
तमे
सर्व | दूजे लोक वत्
द्वार
भाग
१. समयादन्तर्मुहूर्त प्रमत्ततामप्रमत्ततां भजन्ति मुनयः ।
देशोनपूर्वकोटिमन्योन्यं तिष्ठन्ति भजमानाः ॥ २. एटला पूरतुं । ३. गाथानो अर्थ । ४. सर्वज्ञ जाणे छ।