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नवतत्त्वसंग्रहः धर्म-यथार्थ आत्मपरिणति केवलिभाषित अनेकांत-स्याद्वादरूप जिम है तिम न माने, अपनी कल्पनासे सद्दहणा करे, पूर्व पूरुषांका मत भ्रंश करे, सूत्र अर्थ विपरीत कहै, नय प्रमाण न समजे, एकांत वस्तु प्ररूपे, कदाग्रह छोडे नही ते, मिथ्यात्वमोहनीयके उदये सत्पदार्थ मिथ्या भासे जैसे धत्तुरा पीये हूये पुरुषकू श्वेत वस्तु पीत भान होवे तथा जैसे ज्वरके जोरसे भोजनकी रुचि नही होती है तैसे मिथ्यात्वके उदय करी सत् पदार्थ जूठा जाने है ते प्रथम गुणस्थानके लक्षण. ___ जैसे पुरुषने खीर खंड खाके वम्या, पिण किंचित् पूर्वला स्वाद वेदे है तैसे उपशमसम्यक्त्व वमतां पूर्व सम्यक्त्वका स्वाद वेदे है. इति द्वितीय.
जैसे 'नालिकेर' द्वीपका मनुष्यका अन्नके उपरि राग नही, अने द्वेष बी नही तिनोने कदे अन्न देख्या नही इस वास्ते. ऐसे जैन धर्म उपरि राग बी नही द्वेष बी नही ते मिश्र गुणस्थानका लक्षण जानना. इति तृतीय.
अठारें दूषण रहित सो देव, पांच महाव्रतधारी शुद्ध प्ररूपक सो गुरु, धर्म केवलिभाषित स्याद्वादरूप. चौकडी दूजीके उदये अविरति है इति चतुर्थ.
१२ (?) अनुव्रत पाले, ११ पडिमा आराधे, ७ कुव्यसन, २२ अभक्ष्य टाले, ३२ अनंतकाय वर्जे, उभय काले सामायिक, प्रतिक्रमणा करे, अष्टमी, चौदस, अमावास्या, पूर्णमासी, कल्याणक तिथि इनमे पोषध करे ओर तिथिमे नही अने इकवीस गुण धारक ए (पांचमाका) लक्षण. ____छठा-सतरे भेदे संयम पाळे, पांच महाव्रत पाले, ५ समिति, ३ गुप्ति पाले, चारित्रिया, संतोषी, परहित वास्ते सिद्धान्तका उपदेश देवे, व्यवहारमे कले (रह ?) कर चौदा उपगरणधारी परंतु प्रमादी है. एह लक्षण छठेकों. ___सातमे-संज्वलन कषायना मंदपणाथी नष्ट हुया है प्रमाद जेहना, मौन सहित, मोहके उपशमावनेकू अथवा क्षय करनेकू प्रधान ध्यान साधनेका आरंभ करे, मुख्य तो धर्मध्यान हुइ, अंशमात्र रूपातीत शुक्ल ध्यान पिण होवे है, षडावश्यक कर्तव्यसे रहित, ध्यानारूढत्वात्.
अष्टमा-क्षपक श्रेणिके लक्षण-आसन अकंप, नासिकाने अग्रे नेत्रयुगल निवेशी कछुक उघाड्या है नेत्र ऐसा होके संकल्प विकल्परूप जे वायुराजा तेहथी अलग कीना है चित्त, संसार छेदनेका उत्साह कीधा है ऐसा योगीन्द्र शुक्ल ध्यान ध्यावा योग्य होता है पीछे पूरक ध्यान, कुंभक ध्यान, स्थिर ध्यान ए तीनो शुक्लके अंतरमें वमे है. इति अष्टम लक्षण.
नवमे गुणस्थानके नव भाग करके प्रकृति क्षय करे. इति नवमा. दसमे सूक्ष्म लोभ संज्वलन रह्या और सर्व मोहका उपशम तथा क्षय कीया. सर्वथा मोहके उपशम होणे करके उपशांतमोह गुणस्थान कहीये है. ११ मा. सर्वथा मोहके क्षय होणे ते क्षीणमोह गुणस्थान कह्या. १२ मा. १. ध्यानमां आरूढ होवाथी।