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________________ २४. सूक्ष्म : ऐसा शरीर मिले जो इन्द्रिय गोचर न हो और यंत्र से भी दिखाई न दे तथा किसी को न रोके व न स्वयं रूक सके, वह सूक्ष्म नाम कर्म है । २५. अपर्याप्त : जिससे जीव स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण न करे, वह अपर्याप्त नाम कर्म है । २६. साधारण : जिससे एक शरीर में अनंत जीवों का वास हो या अनंत जीवों को एक ही शरीर प्राप्त हो, वह साधारण नामकर्म है । २७. अस्थिर : कान, भौं, जिह्वा आदि अस्थिर अवयवों की प्राप्ति हो, वह अस्थिर नामकर्म है । २८. अशुभ : जिससे नाभि से नीचे वाले अंग अशुभ हो, वह अशुभ कर्म है। २९. दुर्भग : जिस कर्म के उदय से जीव को देखते ही रोष या उद्वेग पैदा हो या भलाई करने पर भी वह किसी को अच्छा नहीं लगे, वह दुर्भग (दौर्भाग्य) नामकर्म है। ३०. दु:स्वर : जिससे जीव का स्वर कौएं जैसा अप्रिय, कर्कश व कठोर हो, वह दु:स्वर नामकर्म है । ३१. अनादेय : जिससे युक्तियुक्त प्रियवचनों का भी अनादर हो, वह अनादेय नामकर्म है । ३२. अपयश : लोकोपकारी कार्य करने पर भी जीव को यश अथवा कीर्ति हासिल न हो, वह अपयश नामकर्म है । ३२-३५. नरक क्रिक : जिन कर्मों के उदय से जीव को नरकगति, नरकानुपूर्वी तथा नरकाष्य की प्राप्ति हो । ३६-६०. पच्चीस कषाय : जिस कर्म के उदय से जीव को १६ कषाय और नौ नो- कषाय की प्राप्ति हो । ३६-३९ अनंतानुबंधी चतुष्क : अनंतानुबंधी- क्रोध- मान-माया तथा लोभ, इन कषायों के उदय से जीव संसार में अनन्तकाल तक मिथ्यात्व दशा में परिभ्रमण करता रहता है । ४०-४३. अप्रत्याख्यानीय चतुष्क : अप्रत्याख्यानीय क्रोध-मान-माया श्री नवतत्त्व प्रकरण ८१
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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