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सर्वांश से अतिरिक्त अन्य पदार्थों में भी रहे। जैसे 'गोःशृङ्गित्वम्' गाय शृंग वाली होती है। यह लक्षण भी सही नही है क्योंकि सिंग केवल गाय के ही नहीं, भैंस और बकरी के भी होते हैं । यहाँ जो लक्षण बताया, वह लक्षण उस पदार्थ से अतिरिक्त पदार्थ में भी व्याप्त होने से यहाँ पर अतिव्याप्ति दोष है।
३. असंभव : 'लक्ष्यमात्राऽवर्त्तनम्' अर्थात् लक्षित पदार्थ में उस गुण का सर्वथा अभाव हो । जैसे 'गो:एकशफत्वम्' यहाँ गाय का लक्षण एक शफत्व बताया, जो कि गाय के होता ही नहीं है । अतः यहाँ असंभव दोष है । ___गाय का निर्दोष तथा सही लक्षण है 'गो:सास्नादिमत्वमू' अर्थात् जो सास्ना (गले में चमडे की झालर) से युक्त है, वह गाय है । यह लक्षण प्रत्येक गाय में विद्यमान होता है तथा अन्य किसी भी भेंस आदि पशुओं में नहीं होता। यह संपूर्ण गाय जाति में व्याप्त है । उसके अतिरिक्त अन्य किसी भी जाति में नहीं है। अतः यह लक्षण सर्वथा उपयुक्त है। इसी प्रकार ज्ञानादि छह लक्षण, जिसका उल्लेख प्रस्तुत गाथा में किया गया है, ये जीव के अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ में नहीं मिलते । जहाँ-जहाँ जीव है, वहाँ-वहाँ ज्ञानादि गुण है, यह अन्वय व्याप्ति तथा 'जहाँ-जहाँ ज्ञानादि गुण का अभाव है, वहाँ-वहाँ जीव का अभाव है', यह व्यतिरेक व्याप्ति, दोनों ही व्याप्तियाँ इसमें घटित होती है।
१. ज्ञान : जिससे वस्तु के विशेष धर्म को जाना जाय, वह ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव तथा केवलज्ञान की अपेक्षा से पांच भेद वाला है। यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि सम्यग्दृष्टि जीव का ज्ञान, ज्ञान है । मिथ्यादृष्टि का ज्ञान, अज्ञान है, जिसके ३ भेद है, मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान तथा विभंग ज्ञान (अवधि ज्ञान का विपरीत) । जहाँ-जहाँ जीव है, वहाँ-वहाँ ज्ञान है और जहाँजहाँ ज्ञान है, वहाँ-वहाँ जीव है। अतः ज्ञान जीव का ही लक्षण हैं। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से हीनाधिक ज्ञान तथा क्षय से केवल ज्ञान आत्मा में प्रकट होता है।
२. दर्शन : वस्तु के सामान्य धर्म को जानने की शक्ति दर्शन है, जिसके चार भेद है - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । इन चार प्रकार के दर्शनों में से एक या अधिक दर्शन हीनाधिक प्रमाण में प्रत्येक जीव को होता है । जीव के साथ दर्शन का परस्पर अविनाभावी संबंध है । दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से हीनाधिक तथा क्षय से संपूर्ण दर्शन प्रगट -----------------------
श्री नवतत्त्व प्रकरण
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