SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विपाकी कर्म कहते हैं। ----- १०६७) जीव विपाकी कर्म की कितनी प्रकृतियाँ हैं ? उत्तर : अठहत्तर - (१-५) ज्ञानावरणीय की पांच, (६-१४) दर्शनावरणीय की नौ, (१५-४२) मोहनीय की अठ्ठाईस, (४३-४७) अंतराय की पांच, (४८-४९) गोत्र की दो, (५०-५१) वेदनीय - दो, (५२) तीर्थंकर नामकर्म, (५३) उच्छ्वास नामकर्म, (५४) बादर, (५५) सूक्ष्म, (५६) पर्याप्त, (५७) अपर्याप्त, (५८) सुस्वर, (५९) दुःस्वर, (६०) आदेय, (६१) अनादेय, (६२) यश, (६३) अपयश, (६४) त्रस, (६५) स्थावर, (६६) शुभ विहायोगति, (६७) अशुभ विहायोगति, (६८) सुभग, (६९) दुर्भग, (७०-७३) चार गति, (७४-७८) पांच जाति । १०६८) पुद्गल विपाकी कर्म किसे कहते हैं ? उत्तर : जिसका फल पुद्गल द्वारा जीव को प्राप्त हो, उसे पुद्गल विपाकी कर्म कहते हैं। १०६९) पुद्गल विपाकी कर्म प्रकृतियाँ कितनी हैं ? उत्तर : पुद्गल विपाकी कर्म की ७२ प्रकृतियाँ हैं – समस्त १५८ प्रकृतियों में से जीव विपाकी ७८, आनुपूर्वी - ४, आयुष्य-४, ये ८६ प्रकृतियाँ घटने पर १५८-८६ = ७२ बाकी रही प्रकृतियाँ पुद्गल विपाकी है। १०७०) भवविपाकी कर्मप्रकृति किसे कहते हैं ? उत्तर : जिस कर्म के उदय से जीव प्राप्त भव में रुके अर्थात् जो प्रकृति अपना फल नरकादि भव में बतावें उसे भवविपाकी कर्मप्रकृति कहते हैं । इसके ४ भेद हैं - (१) नरकायु, (२) तिर्यंचायु, (३) मनुष्यायु, (४) देवायु । १०७१) क्षेत्र विपाकी कर्म किसे कहते हैं ? . उत्तर : जिस कर्म के उदय से जीव मरण स्थान से उत्पत्ति स्थान पर पहुँचे, ___उसे क्षेत्रविपाकी कर्म कहते हैं.। . १०७२) क्षेत्र विपाकी कर्म के कितने भेद हैं ? । उत्तर : चार - (१) नरकानुपूर्वी, (२) तिर्यंचानुपूर्वी, (३) मनुष्यानुपूर्वी, (४) - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -- - - - ३४६ - श्री नवतत्त्व प्रकरण.
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy