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पर पूर्ण श्रद्धा रखना । (२) अपायविचय - राग-द्वेष संसार में अपायकष्टभूत है, ऐसा विचार करना । (३) विपाक विचय - सुख दुःख पूर्व कर्म का विपाक है, इस पर कर्म विषयक चिंतन करना । (४)
संस्थान विचय - षड् द्रव्यात्मक लोक के स्वरुप का चिंतन करना । ९८२) धर्मध्यान के कितने लिंग, लक्षण हैं ? उत्तर : चार - (१) आज्ञारुचि - आज्ञा-पालन में रुचि रखना । (२) निसर्गरुचि
- बिना उपदेश के ही स्वभाव से जिन भाषित तत्त्व पर श्रद्धा होना । (३) उपदेशरुचि - उपदेश श्रवण से धर्म में रुचि हो । (४) सूत्ररुचि
- शास्त्र पढने से धर्म में रुचि होना । ९८३) धर्मध्यान के आलंबन कितने हैं ? उत्तर : चार - (१) वांचना - शास्त्र पढना - पढाना । (२) पृच्छना - पढे
हुए ज्ञान की पुनः पुनः आवृत्ति करना । (३) परावर्तना – पढते हुए
उत्पन्न शंका का समाधान करना । (४) धर्मकथा - धर्मोपदेश देना । ९८४) धर्मध्यान की कितनी अनुप्रेक्षाएँ हैं ? उत्तर : चार - (१) अनित्य भावना – समस्त पदार्थ अनित्य है, ऐसा चिन्तन ।
(२) अशरण भावना - धर्म के सिवाय कोई शरण रुप नहीं है, ऐसा चिन्तन (३) एकत्व भावना - जीव अकेला आया है, अकेला ही जायेगा, ऐसा चिन्तन । (४) संसार भावना - कर्मानुसार ही सब जीव
इस संसार में परिभ्रमण करते हैं, ऐसा चिन्तन । ९८५) धर्म ध्यान के चारों भेद किस गुणस्थानक में होते हैं ? उत्तर : सातवें अप्रमत्त संयत गुणस्थानक से बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानक पर्यंत
धर्मध्यान के चारों भेद होते हैं । ९८६) धर्मध्यान में किस आयुष्य का बंध होता है ? उत्तर : धर्मध्यान में यदि जीव आयुष्य बांधे तो देवायुष्य का ही बंध होता
९८७) शुक्ल ध्यान किसे कहते हैं ? उत्तर : पूर्व विषयक श्रुत के आधार पर घाती कर्मों को नष्ट कर आत्मा को
श्री नवतत्त्व प्रकरण