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________________ भावार्थ जिन जीवों को अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्व का स्पर्श हो जाता है, उनका संसार निश्चित ही अपार्ध पुद्गल परावर्त्त जितना बाकी रह जाता है ॥५३॥ विशेष विवेचन प्रस्तुत गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि एक बार यदि जीव पलभर के लिये भी सम्यक्त्व का स्पर्श कर ले तो परित्त संसारी या अल्पभवी हो जाता ९ समय का जघन्य अंतर्मुहूर्त है और दो घडी (४८ मिनट) में एक समय कम उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है एवं १० समय से यावत् उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त के मध्य के सब कालभेद मध्यम अन्तर्मुहूर्त है। यह व्याख्या हम काल तत्त्व के विवेचन में कर आये हैं। यहाँ मध्यम अन्तर्मुहूर्त असंख्य समय का ग्रहण करना चाहिए । इस काल में यदि सम्यक्त्व का लाभ हो जाय या इतने समय तके सम्यक्त्व का स्पर्श , हो जाय तो वह जीव चाहे जैसे पाप कर्म निकाचित करें तब भी वह अर्धपुद्गल परावर्तन काल जितने समय में पुनः सम्यक्त्व प्राप्त कर अवश्यमेव मोक्ष में जाता है । यह सम्यक्त्व की एक बार स्पर्शना का फल है। सम्यक्त्व प्राप्त करते समय जो ग्रंथि (निबिड राग-द्वेष की गांठ) भेद होता है, वह ग्रंथि भेद एक बार हो जाने के बाद पुन: वैसी ग्रंथि जीव को प्राप्त नहीं होती । इसलिये उस ग्रंथिभेद के प्रभाव से जीव अर्द्ध पुद्गल परावर्तनकाल तक अवश्य मोक्ष को प्राप्त करता है। ____ अपार्ध - अर्थात् अप + अर्ध यानी व्यतीत हुआ है पहला आधाभाग जिसका, ऐसा अंतिम आधा भाग अथवा अप + अर्ध अर्थात् किंचित् न्यून ऐसा जो आधा पुद्गल परावर्तन है, उसे अर्ध पुद्गल परावर्तनकाल कहते हैं। पुद्गल परावर्तनकाल का स्वरुप अगली गाथा में स्पष्ट कर रहे हैं । - - - १५२ श्री नवतत्त्व प्रकरण
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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