________________
चारित्ती नो अचारित्तीति' न चारित्र है, अचारित्र है। इसी प्रकार क्षायिक सम्यक्त्व की भी मीमांसा सिद्ध पद में नहीं है । क्योंकि वीतराग पर अखंड श्रद्धा ही सम्यक्त्व है । सिद्ध स्वयं वीतराग है । अगर उनमें अन्य किसी वीतराग पर श्रद्धा करने का आरोपण करे तो उनकी वीतरागता पर अपूर्णता की दोषापत्ति आ पडेगी। जो स्वयं प्रकाशमान है, उसे किसी अन्य प्रकाश की क्या आवश्यकता है ? अतः सिद्ध में क्षायिक सम्यक्त्व भी घटित नहीं होता । इस प्रकार शास्त्र का विसंवाद भी हमें अपेक्षावाद से समझना चाहिए ।
अल्पबहुत्व द्वार कथन ।
गाथा, थोवा नपुंस-सिद्धा, थी नर सिद्धा कमेण संखगुणा । इअ मुक्खतत्तमेअं, नवतत्ता लेसओ भणिया ॥५०॥
अन्वय नपुंस सिद्धा थोवा, थी नरसिद्धा कमैण संखगुणा, इअ मुक्ख तत्तं एअं, नवतत्ता लेसओ भणिया ॥५०॥
संस्कृतपंदानुवाद । स्तोका नपुंसक सिद्धाः, स्त्री नर सिद्धाः क्रमेण संख्य गुणाः । इति मोक्ष तत्त्वमेतन्नवतत्त्वानि लेशतो भणितानि ॥५०॥
___ शब्दार्थ थोवा - थोडे हैं
संखगुणा - संख्यात गुणा नपुंस - नपुंसकलिंग से इअ - ये सिद्धा - सिद्ध
मुक्खतत्तं - मोक्षतत्त्व थी - स्त्रीलिंग से
एअं - इस प्रकार से नर - पुरूषलिंग से
नवतत्ता - नवतत्त्व सिद्धा - सिद्ध
लेसओ - लेश (संक्षेप) से कमेण - अनुक्रम से भणिआ - कहे गये हैं।
भावार्थ नपुंसकलिंग से थोडे सिद्ध हैं। उससे स्त्रीलिंग तथा पुरुषलिंग सिद्ध
१४६
श्री नवतत्त्व प्रकरण