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________________ ३. वेदनीय कर्म : जीव को सुख-दुःख देने के स्वभाव वाला कर्म वेदनीय है। यह कर्म दो प्रकार का है - शाता तथा अशाता । सुख का अनुभव शाता वेदनीय है तथा दुःख का अनुभव अशाता वेदनीय है। जैसे तलवार की धार पर लिपटी हुई शहद चाटने पर तो मीठी लगती है किन्तु उसकी तेज धार से जिह्वा कट जाती है। उसी प्रकार सांसारिक सुख भोगते समय तो बहुत आनंद आता है पर कर्म उदय में आने पर कटु फल भोगना पडता है। यह कर्म जीव के अनंत अव्याबाध सुख को आवृत्त करता है। ४. मोहनीय कर्म : जो कर्म आत्मा को मूढ बनाकर स्क पर तथा हिताहित का विवेक नष्ट कर देता है, सदाचरण में बाधक तथा दुरुचरण में प्रेरक बनता है, वह मोहनीय कर्म है। जैसे मदिरा पीकर व्यक्ति ज्ञानशून्य तथा विवेकशून्य हो जाता है, उसी प्रकार इस कर्म के उदय से जीव धर्म-अधर्म का भेद नहीं कर पाता है । इस कर्म का स्वभाव जीव के क्षायिक सम्यक्त्व तथा अनन्तचारित्र गुण का घात करता है। . ५. आयुष्य कर्म : जिस धर्म के इंद्रय से प्राणी किसी शरीर में अमुक अवधि तक जीवित रहता है, वह आयुष्य कर्म है। इसका स्वभाव बेडी जैसा है, जो जीव को नियत समय तक नरकादि गतियों में रहने की इच्छा न होते हुए भी रोककर रखता है। इस कर्म के कारण जीव अपराधी बनकर अमुककाल तक उस बेडी से बंधा रहता है । यह कर्म जीव की अक्षयस्थिति को रोकता ____६. नाम कर्म : जिस कर्म के उदय से जीव नरक-तिर्यश्च-मनुष्य-देवादि गति-जाति-शरीर में नाना पर्यायों का अनुभव करें, वह नामकर्म है। जैसे निपुण चित्रकार अपनी कुशलकला से विविध प्रकार के सुंदर चित्र बनाता है तो कुरुप भद्दे चित्र भी बना देता है, उसी प्रकार नाम कर्म भी अनेक रुप-रंग-आकृति वाले देव-मनुष्यादि प्राणियों के शरीर की रचना करता है । यह कर्म जीव के अरुपीगुण को आवृत्त करता है। ७. गोत्र कर्म : जो कर्म आत्मा को ऊँच-नीच कुल में उत्पन्न करावे, वह गोत्र कर्म है। जैसे कुम्हार कुंभस्थापना के लिये उत्तम घडे बनाता है, जो अक्षत-चन्दनादि से पूजे जाते हैं तथा कुछ ऐसे घडे बनाता है, जिसमें मदिरा - - १२२ श्री नवतत्त्व प्रकरण --
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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