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________________ ३) धर्मध्यान : धर्म के स्वरूप का पर्यालोचन करना, निर्जरा के लिये शुभ आचरणादि को चिन्तवना धर्मध्यान है। ४) शुक्ल ध्यान : पूर्व विषयक श्रुत के आधार से घाती कर्मों को नष्ट कर आत्मा को विशेष रूप से विशुद्ध, स्वच्छ बनाने वाला परम ध्यान शुक्लध्यान है। ___ प्रस्तुत चार भेदों में पश्चात् के दो ध्यान आत्मशुद्धि कारक होने से उपादेय है। प्रथम दो ध्यान संसार वृद्धिकारक होने से निर्जरा तत्त्व में नहीं गिने गये हैं । उपरोक्त ध्यान के इन चारों भेदों के चार -चार प्रभेद हैं, जिन्हें प्रश्नोत्तरी में स्पष्ट किया गया है। ६. व्युत्सर्ग : अर्थात् त्याग करना । इसका अपर/नाम कायोत्सर्ग भी है। जिसमें काया का उत्सर्ग (त्याग) हो, वह कायोत्सर्ग है। अंतःकरण से ममत्व रहित होकर आत्म सान्निध्य से परवस्तु का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। शरीर संबंधी समस्त संवेदनों से उपर उठकर आत्मध्यान में लीन-तल्लीन होना कायोत्सर्ग है। बाह्य व आभ्यन्तर तप रूप १२ भेद वाला निर्जरा तत्त्व अष्टकर्मरूपी काष्ट को भस्मीभूत करने में अग्नि के समान है। तप की अग्नि से समस्त कर्मपुद्गल जलकर राख हो जाते हैं, आत्मा से निर्जरित हो जाते हैं और आत्मा स्वर्णवत् शुद्ध, विशुद्ध कांति से निखर उठता है । बन्ध तत्त्व के ४ भेद व गाथा पयइ सहावो वुत्तो, ठिइ कालावहारणं । अणुभागो रसो णेओ, पएसो दलसंचओ ॥३७॥ अन्वय पयइ सहावो वुत्तो, कालावहारणं ठिइ, अणुभागो रसो णेओ, दलसंचओ पएसो ॥३७॥ संस्कृतपदानुवाद प्रकृतिः स्वभावः उक्तः, स्थितिः कालावधारणं । अनुभागो रसो ज्ञेयः, प्रदेशो दलसंचयः ॥३७॥ - - - - - - - - - - - - - - - - - - ११६ श्री नवतत्त्व प्रकरण
SR No.022327
Book TitleNavtattva Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNilanjanashreeji
PublisherRatanmalashree Prakashan
Publication Year
Total Pages400
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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