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________________ हिंदी-भाव सहित ( विषयोंमें सुख नहीं)। न्यायपूर्वक धनी होकर भोग भोगनेकी इच्छा रखनेबालेके लिये: शुदैर्धनैर्विवर्धन्ते सतामपि न संपदः। न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिन्धवः ॥ ४५ ॥ अर्थः - श्रेष्ठ पुरुषोंकी संपत्ति भी केवल न्यायानुसार चलनेसे कभी इकही नहीं होती जैसे नदियोंकी भरती केवल स्वच्छ जलसे कभी नहीं होपाती । इसीलिये ऐसा समझकर, न्यायोपार्जित धनके द्वारा समृद्ध होनेकी तृष्णा भी नहीं रखनी चाहिये; क्योंकि, केवल न्यायपूर्वक धनकी पूर्ण प्राप्ति होना साधारण जनोंको नितान्त कठिन है । दूसरें, गृहाश्रममें रहकर धन प्राप्त होनेपर भी कभी चित्त संतुष्ट नहीं हो सकता, निरंतर कोई न कोई आकुलता लगी ही रहती है। इसलिये यदि पूर्ण सुखी होना हो तो परिग्रहसे सर्वथा विरक्त होना चाहिये । तभी पूर्ण संतोष होनेपर अपूर्व सुखकी प्राप्ति हो सकती है। धन कैसा भी हो, परंतु उससे धर्म सधता है, सुख ज्ञानादिक भी ____ प्राप्त होते हैं। ऐसा समझने बालोंसे कहते हैं:स धर्मो यत्र नाधर्मस्तत्सुखं यत्र नासुखम् । तज्ज्ञानं यत्र नाज्ञानं सा गति यत्र नागतिः ॥ ४६ ॥ अर्थः-गृहस्थाश्रमका धर्म धर्म नहीं है, सुख सुख नहीं है और वहां ज्ञान तो पूर्ण हो ही नहीं सकता। गृहाश्रममें रहकर धर्म धारण करने बालेको शुभगति भी यदि प्राप्त हो तो स्वर्गतक हो सकती है । परंतु ये सब तुच्छ हैं । असली धर्म तो उसे कहना चाहिये जहांपर अधर्मका लेशमात्र भी न हो । गृहाश्रमके धर्ममें थोडासा धर्म और शेष सब पाप ही पाप रहता है । गृहस्थीकी क्रिया सर्वथा ऐसी हो ही नहीं सकती कि जिससे केवल धर्मका ही संचय होता रहै । जब कि गृहस्थीमें पूर्ण धर्म ही नहीं तो पूर्ण सुख वहां कहांसे मिल सकता है ? सुख के कारण दो ही हैं, एक धर्म दूसरा संतोष । परंतु संतोष भी गृहस्थको रहता नहीं । इसीलिये यह कहा कि सुख वही है कि जिसमें .
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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