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________________ ३ आत्मानुशासन. धिक बढती जायगी । जैसे कि दादके खुजानेसे दाहदुःश्व अधिक ही बढता है, कम नहीं होता। तीसरी बात यह कि, उसीमें फसे फसे मर जानेपर नरकादि दुर्गतियोंके दुःख भी भोगने पडेंगे। क्योंकि, आशाके वश होनेसे परवस्तुओंमें ममता बढती है और जीवके विचार अशुभ या मलिन होते हैं; जिनके कि कारण घोर पापोंका संचय होनेसे दुर्गतियोंमें जाना ही पडता है । इन तीन बातोंका विचार करनेपर मालूम पडेगा कि, आशाके वश होकर विषयसामग्रीके संचय करनेमें लगना कभी सुखकारी नहीं है। दैववश लेशमात्र सुख यदि प्राप्त भी हो तो वह स्थिर नहीं । देखो: खातेऽभ्यासजलाशयाऽजनि शिला प्रारब्धनिर्वाहिणा, भूयोऽभेदि रसातलावधि ततः कृच्छ्रात् सुतुच्छं किल । क्षारं वायुदगाचदप्युपहतं पूति मिश्रेणिभिः, शुष्कं तच्च पिपासतोस्य सहसा कष्टं विधेश्चेष्टितम् ॥ ४४ ॥ अर्थः-किसी मनुष्यने तृषातुर होकर शीघ्र ही जल निकलआनेकी आशासे भूमिको खोदा । परंतु खोदते खोदते जल जहां निकलना चाहिये वहांपर एक पत्थरकी शिला निकली । तो भी उसने आतेसाहसी होकर आरंभ किये कार्यको पारतक पहुचानेकेलिये तृष्णावश और भी खोदना आरंभ किया । परंतु पातालतक खोदनेपर भी बडे कष्टसे कुछ थोडासा जल निकला। पर वह भी अत्यंत खारा तथा दुर्गंधमय और छोटे छोटे जलके कीडोंसे भरा हुआ था। खैर, परंतु खोदनेबालेने उसे भी तषावश पीना चाहा, किंतु पी नहीं पाया कि इतनेमें ही वह पानी सूख भी गया । देखो, भाग्यकी लीला बडी ही विचित्र है; और जबतक जीव उस दैवके पराधीन है तबतक कष्ट ही कष्ट है । किसाने ठीक कहा है कि — विधौ विरुद्धे न पयः पयोनिधौ' अर्थात् दैव यदि अनुकूल न हो तो मनुष्यको समुद्रमें भी जल नहीं मिल सकता है ।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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