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________________ २४२ आत्मानुशासन. होता है और अंतरंग कर्ममलका प्राय अभाव भी हो जाता है; परंतु शरीर तो भी बना ही रहता है । इस शरीर-कुटीमें स्थिर रहते हुए योगीश्वर अपने ज्ञानको जगमें प्रकाशित करते हैं । सत्य मार्गका उपदेश कर भव्य-जीवोंको संसारसे पार करते हैं। फिर उसी केवलज्ञानके बलसे शरीरका नाश कर अमूर्तिक परमात्मपदको प्राप्त करते हैं । उस समय पूरे सिद्धात्मा होकर केवल ज्ञान-ज्योतिमय प्रकाशित होने लगते हैं। जैसे प्रारंभमें जब अग्निका लकडीमें प्रवेश होता है तब लकडी भी दीख पडती है और अग्निकी ज्वाला भी उठती दीखती है । कालांतरमें वही अग्निज्वाला लकडीको सर्वथा भस्म करदेती है और केवल शुद्ध दशामें वह प्राप्त हो जाती है । यतियोंके चारित्रकी भी यही महिमा है । भावार्थ, यतियोंके चारित्रसे वह अपूर्व आत्मस्वरूप प्रगट होजाता है जो कि संसारी जीवोंको चाहें जैसे प्रयत्न करनेपर भी प्राप्त नहीं होपाता । यही बडा भारी इसमें आश्चर्य है। ____ अन्य दर्शनकार मुक्तदशा कैसी मानते हैं ?गुणी गुणमयस्तस्य नाशस्तन्नाश इष्यते । अत एव हि निर्वाणं शून्यमन्यैर्विकल्पितम् ॥ २६५ ॥ अर्थः-वैशेषिक-नैयायिकोंने गुणोंको द्रव्योंसे एक जुदा कल्पित किया है। और मोक्षदशामें उन गुणोंका नाश होजाना माना है। इसलिये मुक्त होते ही जीव बुद्धि आदि गुणोंसे शून्य रह जाता है । परंतु आश्चर्य, कि जीवका विशेष स्वभाव ज्ञान है । जब कि वही न रहा तो जीव किस स्वरूपमें उस समय रहेगा ? इस आक्षेपके भयसे बौद्धोंने जीवको ज्ञानादि गुणोंसे कोई जुदा पदार्थ नहीं माना, किंतु तन्मय उसका स्वरूप माना है। परंतु वे भी मुक्तिके समय ज्ञानका उच्छेद हो जाना मानते हैं। इसलिये ज्ञानका उच्छेद मानो जीवका ही उच्छेद है; ऐसा उन्हें मानना पडता है । इसीलिये निर्वाणको शून्य. स्वरूप उन्होंने ठहराया है।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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