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________________ हिंदी-भाव सहित (संसारकी अन्त दशा)। २४१ तो जो शुभाशुभ-दोनोंके नाशार्थ सर्व आरंभ व परिग्रहोंसे ममता-प्रेमबंधन तोड चुका है उसकी महिमाका फिर कहना ही क्या है ? उसे बडेसे बडे सत्पुरुष वंदते हैं। जब कि कर्म बलवान् है तो उसकी अवहेलना कैसे होसकै ? सुखं दुःखं वा स्यादिह विहितकर्मोदयवशात्, कुतः प्रीतिस्तापः कुत इति विकल्पाद्यदि भवेत् । उदासीनस्तस्य प्रगलति पुराणं नहि नवं, समास्कन्दत्येष स्फुरति सुविदग्धो मणिरिव ॥२६३ ॥ अर्थ:-पूर्वमें किये हुए कर्मोंके उदयवश सुख तथा दुःख तो होता ही है। इसमें क्यों तो मैं प्रीति करूं और क्यों संताप करूं ! क्योंकि, ये सुख-दुःख आत्मीय स्वभाव न होनेसे मेरी खुदकी कुछ हरकत नहीं करसकते हैं। यदि ऐसा विचार उत्पन्न होजाय तो सुखदुःख होते हुए भी जीव उनसे उदास रह सकता है। इस उदासीनताका लाभ यह होगा कि उसके प्राचीन कर्म तो उदय पाकर खिर ही जायगे; किंतु विषयमोह न रहनेसे वह नवीन बंध कुछ भी नहीं नाँधेगा । इसी प्रकार कुछ समयतक वीतराग बना रहनेसे कोका नाश करके अति निर्मल रत्नके समान शुद्ध होजायगा और ज्ञान-दर्शनादि गुणोंको प्रकाशित करने लगेगा। यही बात रूपान्तरसे आगे भी कहते हैं । देखो: सकलविमलबोधो देहगेहे विनिर्यन् , ज्वलन इव स काष्ठं निष्ठुरं भस्मयित्वा । पुनरपि तदभावे प्रज्वलत्युज्वलः सन् , भवति हि यतिवृत्तं सर्वथाश्चर्यभूमिः ॥ २६४ ॥ अर्थः-योगीश्वरोंमें पूर्ण वीतराग भावोंके द्वारा घातिकर्मोका नाश हो जानेपर सर्व तत्त्वोंको समझनेकेलिये समर्थ ऐसा पूर्ण निर्मल ज्ञान प्रगट होता है । इस समय यद्यपि ध्यानके बलसे ज्ञान प्रगट ३१
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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